जीवन की उत्पत्ति एवं विकास | जीवन की उत्पत्ति कहां से हुई | जीवन की उत्पत्ति के सिद्धांत | जीवन की उत्पत्ति के बारे में ओपेरिन का सिद्धांत
वर्तमान में पृथ्वी पर पाए जाने वाले जैव विविधता का अस्तित्व प्रारंभिक काल में नहीं था। पृथ्वी अपने निर्माण के शुरुआती वर्ष में एक गैसीय पिंड था तथा इसका तापमान बहुत अधिक था।
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जीवन की उत्पत्ति एवं विकास
- वर्तमान में पृथ्वी पर पाए जाने वाले जैव विविधता का अस्तित्व प्रारंभिक काल में नहीं था। पृथ्वी अपने निर्माण के शुरुआती वर्ष में एक गैसीय पिंड था तथा इसका तापमान बहुत अधिक था। पृथ्वी को ठंडा होने में तथा इसके सतह पर ठोस परत का निर्माण होने में कई लाख वर्ष लगे। इसके बाद ही पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई होगी।
- पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न जीव समुदाय की उत्पत्ति कब और कैसे हुई इसका उत्तर आज भी विज्ञान को प्रमाणिक तौर पर पता नहीं चला है परंतु कई ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांत को मान्यता मिली है जो कुछ हद तक जीवन की उत्पत्ति के रहस्य को उजागर किया हैं। जीवन की उत्पत्ति के प्रचलित सिद्धांत निम्न है-
- स्वतः जन्म का सिद्धांत (Spontaneous Generation theory)
- जीवन की उत्पत्ति के संबंध में यह सिद्धांत मिस्र की सभ्यता के समय से ही प्रचलित है। इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी पर अधिकांश जीवों की उत्पत्ति स्वतः ही अजीव (निर्जीव) पदार्थों से हुई है।
- फ्रांसिस्को रेडी तथा लुई पाश्चर ने अपने कई प्रयोगों में सर्वप्रथम इस सिद्धांत को गलत प्रमाणित किया। वर्तमान में यह सिद्धांत पूरी तरह से अतार्किक तथा अवैज्ञानिक बन चुका है।
- विशेष सृष्टि का सिद्धांत (Special Creation Theory)
- यह सिद्धांत एक धार्मिक सिद्धांत है। सभी देश के धर्मों में ऐसा विश्वास है कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवधारियों की रचना थोड़े-थोड़े समय अंतराल में किसी अलौकिक शक्ति के द्वारा हुई यह अलौकिक शक्ति ईश्वर के पास मौजूद थी और उन्हीं के द्वारा उन्हीं के अनुरूप इस सृष्टि का निर्माण हुआ परंतु इस धार्मिक विचारधारा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
- हेल्डन का सिद्धांत (Haldane's Opinion)
- जीव वैज्ञानिक हेल्डेन के मत के अनुसार पृथ्वी के आदि वातावरण (Primitive Atmosphere) के गैसीय पदार्थ में CO2, NH3 तथा जलवाष्प उपस्थित थे। इन गैसीय पदार्थ पर सूर्य के पाराबैगनी प्रकाश का प्रभाव पड़ा जिनसे कई कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण होना शुरू हुआ।
- शर्करा (Sugar), वसा, प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल जैसे कार्बनिक पदार्थ के संश्लेषण होने पर ये समुंद्र में एकत्रित होते गये तथा समुद्र में ही कार्बनिक पदार्थ के मिलने से कोशिका की उत्पत्ति हुई जिसके बाद जीवन की उत्पत्ति का मार्ग खुला गया।
- ओपैरीन का मत (Oparin's Conception)
- एस. आई. ओपैरिन रूसी जीव वैज्ञानिक थे उन्होंने अपनी पुस्तक 'The Origin of Life' में जीवन की उत्पत्ति के सिद्धांत बतलाए हैं जो अन्य सभी सिद्धांतों में सर्वाधिक मान्य है ।
- ओपैरिन का भी मानना है कि जीवन की उत्पत्ति से पहले समुद्र में विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थ का संश्लेषण हुआ। कार्बनिक पदार्थ के संश्लेषण हेतु ऊर्जा की प्राप्ति पराबैंगनी प्रकाश, ज्वालामुखी के ताप तथा अन्य किसी स्रोतों से प्राप्त हुआ होगा। । पुनः कार्बनिक पदार्थ आपस में अभिक्रिया कर अधिकाधिक जटिल रचनाओं का निर्माण किया। इसके फलस्वरूप एक ऐसी रचना का निर्माण हुआ जिसे हम 'जीव' कहते हैं।
जीवन की उत्पत्ति का आधुनिक मत (Modern Concept of Origin of Life)
- जीवन की उत्पत्ति का आधुनिक मत ओपैरिन, हैल्डेन, स्टैनले, मिलर तथा हैराल्ड यूरे और सिडने फॉक्स जैसे जीव वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। जीवन की उत्पत्ति अत्यंत ही धीमी गति से तथा निम्न चरणों में क्रमिक रूप से हुआ:-
- पृथ्वी के निर्माण के बाद इसके ऊपर का गैसीय वायुमंडल में हाइड्रोजन की बहुलता थी, जिसके कारण आदि वायुमंडल वर्तमान समय की तरह उपचायक (Oxidicing) न होकर अपचायक (Reducing ) था । आदि वायुमंडल में हाइड्रोजन की सर्वाधि क क्रियाशील तत्व थे। हाइड्रोजन ऑक्सीजन से सहयोग कर जल का संश्लेषण किया तथा नाइट्रोजन से अभिक्रिया कर अमोनिया एवं कार्बन से संयोजन का मेथेन का संश्लेषण किया।
- जल, अमोनिया तथा मेथेन के संश्लेषण होने के बाद भी पृथ्वी इतनी गर्म थी कि इन यौगिक के अणु तरल रूप में नहीं होकर गैसीय रूप में ही वायुमंडल में मौजूद थे।
- अत्यंत ही धीमी गति से अपचायक वायुमंडल में उपस्थित मेथेन, अमोनिया तथा हाइड्रोजन के गैसीय मिश्रण द्वारा सरल कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण शुरू हुआ।
- धीरे-धीरे कम-से-कम छह प्रकार के कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण हुआ होगा । यह छह कार्बनिक है- शर्करा (Sugar), ग्लिसरॉल, फैटी अम्ल, ऐमीनो अम्ल, प्यूरिन तथा पिरिमिडिन । इन छह कार्बनिक यौगिक को पूर्वजीवी (Protobionts) यौगिक कहते हैं।
- कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण हेतु ऊर्जा का होना अनिवार्य है। ऐसा माना जाता है कि आदि वातावरण में कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण हेतु ऊर्जा की प्राप्ति सूर्य के पराबैंगनी प्रकाश से हुई होगी। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी गतिविधियों से भी काफी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त होती रही होगी।
- सर्वप्रथम एस. एल. मिलर ने अपने प्रयोग के आधार पर यह तथ्य प्रकट किया कि मेथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन एवं जल ( जलवाष्प ) से विद्युत विसर्जन द्वारा कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण संभव है।
- धीरे-धीरे पृथ्वी ठंडी हुई वायुमंडल का जलवाष्प भी ठंडा होकर जमने लगा तथा इसके बाद जलवृष्टि शुरू हो गई। जलवृष्टि होने से जल पृथ्वी के चारों ओर समुद्र के रूप में एकत्र होता गया । समुद्र के निर्माण के साथ इसमें अनेक पदार्थों के साथ कार्बनिक यौगिक भी घुलकर संचित हो गया है। समुद्र का जलीय वातावरण में घुलित कार्बनिक पदार्थों की अभिक्रिया को आसान बना दिया। इसके बाद समुद्र में रासायनिक विकास का क्रम नए सिरे से प्रारंभ हुआ।
- सरल शर्करा ने आपस में संयोजन कर स्टार्ज तथा ग्लाइकोजेन जैसे जटिल शर्करा में परिवर्तन हुआ। एमिनो अम्ल के संयोजन प्रोटीन का निर्माण हुआ। प्यूरिन एवं पिरिमिडीन ने आपस में अभिक्रिया करके न्यूक्लियोटाइड का निर्माण किया । न्यूक्लियोटाइड के बहुलीकरण के द्वारा न्यूक्लिक अम्ल (RNA, DNA) बना। न्यूक्लिक अम्ल प्रोटीन अणुओं से अभिक्रिया कर न्यूक्लियोप्रोटीन का संश्लेषण किया। न्यूक्लियोप्रोटीन के निर्माण के साथ ही जीवन उत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
- न्यूक्लियोप्रोटीन के संश्लेषण बाद आगे की रासायनिक विकास के क्रम में एंजाइम का संश्लेषण हुआ अंततः एक अन्य महत्वपूर्ण कार्बनिक यौगिक ATP (Adenosine Triphosphate) का संश्लेषण हुआ ।
- प्रथम आदि जीव का उद्धव समुद्र में न्यूक्लियोप्रोटीन के अणु से हुआ । न्यूक्लियोप्रोटीन अपने बाहरी वातावरण से पोषक पदार्थ ग्रहण कर जनन करने में सक्षम हो गया। यह न्यूक्लियोटीन वर्तमान के विषाणु (Virus) के समान थे ।
- विकास के अगले क्रम में न्यूक्लियोप्रोटीन के चारों और कार्बनिक तथा अकार्बनिक अणु एकत्र हुए जिसके बाद न्यूक्लियोप्रोटीन के चारों झिल्ली का निर्माण हुआ । झिल्ली से घिरा न्यूक्लियोटीन ही प्रथम कोशिका कहलाया । यह प्रथम कोशिका प्रोकैरियोटिक के समान रहा होगा ।
- धीरे-धीरे कोशिकीय जीव के रूप में जीवाणु एवं नील हरित शैवाल (सायनो बैक्टीरिया) का विकास हुआ।
- प्रथम विकसित जीव दैनिक क्रियाओं हेतु किण्वन (Fermentation) विधि द्वारा ऊर्जा प्राप्त किया। किण्वन विधि में कार्बनिक पदार्थ का उपयोग हुआ तथा धीरे-धीरे कार्बनिक पदार्थ समाप्त हो गया।
- इसके बाद प्रकाश संश्लेषण जीव का उदय हुआ। यह जीव प्रकाश संश्लेषण द्वारा ऑक्सीजन को वायु में मुक्त किया । अत्र पृथ्वी का वातावरण स्थल पर जीवन की उत्पत्ति का मार्ग खोल दिया।
- वातावरण में ऑक्सीजन के आने के साथ ही ओजोन परत का निर्माण होना शुरू हुआ। ओजोन परत के बनते ही पृथ्वी एवं वायु में जीवित रहना संभव हो पाया।
- समुद्र के जीव पराबैगनी के प्रभाव से इसलिए नहीं आया क्योंकि समुद्री जल घातक पराबैगनी को सोख लेता था।
- अनुकूल परिस्थिति में प्रारंभिक कोशिकाओं से विकसित कोशिका (Eukaryotics) की उत्पत्ति हुई जिससे पौधे एवं जंतु कोशिका बना । समय के साथ-साथ साधारण जीवधारियों से जटिल जीवधारियों की उत्पत्ति हुई जिससे उत्तक, अंग, अंगतंत्र तथा जटिल शरीर का निर्माण हुआ। अलग-अलग परिस्थितियों और परिवेश में विकास की अलग-अलग दिशाएँ उत्पन्न हुई जिससे जैवविविधता का निर्माण हुआ ।
क्रम विकास या विकासवाद (Evolution)
- परिवर्तन की लगातार लेकिन धीमी प्रक्रिया जिससे नए-नए लक्षणों और विभिन्नताओं की उत्पत्ति होती है तथा नई प्रजाति और उच्च वर्गों का विकास होता है, क्रम विकास या विकासवाद कहलाता है।
- क्रम विकास के सिद्धांत के अनुसार वर्तमान में जितने भी जीव जंतु हैं इनकी उत्पत्ति पूर्व उपस्थित अनेक सरल जीव जंतुओं से हुई है। एक जीव जंतु से दूसरे जीव जंतु अथवा एक जाति से नई जाति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अनुवंशिक त्रिभिन्नता, प्राकृतिक चयन तथा अनुकूलन का होता है।
- क्रम विकास लगातार होने वाली प्रक्रिया है परंतु इसकी गति अत्यंत धीमी होती है। एक जीव से नई जीव की उत्पत्ति में करोड़ों वर्ष लग जाते हैं। पृथ्वी पर प्रथम कोशिकीय जंतु आज से 2000 मिलियन वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया, तब से क्रम विकास का दौर आज भी जारी है।
- क्रम विकास के सभी पहलुओं का अध्ययन करना वैज्ञानिक प्रयोग एवं परीक्षण द्वारा आज भी संभव नहीं हो पाया है लेकिन कई ऐसे प्रमाण है जिससे यह साबित होता है कि "क्रमविकास केवल एक धारणा नहीं बल्कि एक सत्य है ।"
- क्रम विकास के कुछ प्रमुख प्रमाण निम्न है-
- आकारिकीय प्रमाण (Morphological Evidences)
- आकारिकीय लक्षणों के आधार पर विभिन्न जीवधारियों के बीच के नजदीकी या दूरवर्ती संबंध का पता लगाकर क्रमविकास का अध्ययन किया जाता है।
- क्रमविकास में मनुष्य का निकटतम संबंधी चिंपैंजी, बंदर, गोरिल्ला है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानव शरीर के कई आकारिकीय लक्षण समान दिखाई पड़ते है।
- आंतरिक रचना से प्रमाण (Anatomical Evidence )
- आंतरिक रचना क्रम विकास के प्रत्यक्ष और बड़े ही सशक्त प्रमाण है। विभिन्न जीवधारियों के आंतरिक अंगों का अध्ययन कर विकास के क्रम का पता लगाना आसान हो जाता है।
- मछलियों का हृदय दो कक्षों का, उभयचर का हृदय 3 कक्षाओं का, पक्षी तथा स्तनधारी का हृदय 4 कक्षों का होता है। मछली से लेकर स्तनधारी तक हृदय का क्रमिक विकास से इस जीवों के भी विकास क्रम पता लगाया जा सकता है।
- समजात अंग (Homologous Organe)
- ऐसे अंग जो उत्पत्ति ( Origin) तथा संरचना (Structure ) के दृष्टिकोण से समान है परंतु उनके कार्य भिन्न हो समजात अंग कहलाते हैं।
- पक्षी और चमगादड़ के पंख, मेंढ़क घोड़े और मानव के अग्रपाद (Forelimbs) या पश्चपाद (Hindlimbs) समाजात अंग है क्योंकि इन सब का निर्माण समान हड्डियों से हुआ है तथा इनकी संरचना समान है
- पेंगुइन के पैड्ल्स एवं ह्वेल के फिलिप्पर समजात अंग है।
- अलग-अलग जंतुओं के समजात अंग यह बताती है कि यह सभी जंतु एक ही या एक-दूसरे से संबंधित पूर्वज से जुड़े हुए है।
- समरूप अंग (Analogous Organe)
- समरूप अंगों के कार्य समान होते है किंतु इनकी उत्पत्ति एवं आंतरिक संरचना में भिन्नता पाई जाती है। जीवधारियों में समान कार्य हेतु समरूप अंग के विकास को निकटगामी विकास (Convergent Evolution) भी कहा जाता है।
- कीट, चमगादड़, पक्षी में पाए जाने वाले पंख समरूप अंग है। इनके समरूप अंग यह स्पष्ट होता है कि कीटो, पक्षियों, चमगादड़ों के पूर्वज अलग-अलग जीव थे।
- समरूप अंग को असमजात अंग भी कहते हैं।
- अवशेषी अंग (Vestigial Organe)
- ऐसे अंग जो कभी पूर्वजों में उपयोगी और क्रियाशील था परंतु वर्तमान पीढ़ी के जंतु में अनुपयोगी एवं निष्क्रिय बन गया है, अवशेषी अंग कहलाते है। कभी-कभी अवशेषी अंग के कारण शरीर में हानिकारक प्रभाव भी पड़ते है।
- मानव शरीर में सौ की संख्या में अवशेषी अंग पाए जाते है। मानव के बाहरी कान (Pinna ), बाल, नाखून, कॉकिक्स अपेंडिक्स, अक्ल चौआ (Wisdoom Teeth) अवशेषी अंग है।
- अवशेषी अंग से पता चलता है कि वर्तमान के जंतु पूर्वकाल के जंतुओं से व्युत्पन्न हुए है, अर्थात् जंतुओं का क्रमविकास हुआ है।
- भ्रूणों का तुलनात्मक अध्ययन (Embryonic Comparison)
- जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक ई. एच. हेकेल ने विभिन्न जीवों के भ्रूणों का तुलनात्मक अध्ययन कर एक Biogentic law दिया।
- हैकेल के नियम के अनुसार 'किसी भी जंतु का भ्रूणीय विकास उसके गति इतिहास की पुनरावृत्ति करता है अर्थात कोई जीव विकास क्रम में उन सभी अवस्थाओं से गुजरता है जिनसे उसके पूर्वज गुजरे थे।' इस नियम को पुनरावृत्ति का सिद्धांत (Recapitulation Theory ) भी कहा जाता है।
- भ्रूणों के तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह सिद्ध होता है कि इकाइनोडर्माटा समुदाय से कॉर्डेटा की उत्पत्ति हुई ।
- योजक कड़ी (Connecting links)
- जब एक वर्ग के जीव से दूसरे वर्ग के जीव का विकास होता है तो यह अचानक से नहीं होता यह बहुत ही धीमी गति से होता है। इन दो वर्गों के बीच धीमें परिवर्तन के कारण एक ऐसी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है जिनमें दोनों वर्गों के थोड़े-थोड़े लक्षण पाए जाते हैं, इन्हें योजक कड़ी कहा जाता है।
- योजक कड़ी से यह पता चलता है कि क्रमविकास कैसे हुआ। एकिडना एक स्तनधारी जीव है परंतु इनमें सरीसृप के लक्षण भी मौजूद है। इससे यह सिद्ध होता है कि स्तनधारियों का विकास सरीसृप से हुआ है।
- प्रमुख योजक कड़ी निम्न है-
- जीवाश्म विज्ञान (Palaeontology)
- जीवाश्म जंतु या पौधों के वे अवशेष है जो पत्थरों पर चिन्हित हो गए हैं। जीवाश्म प्रायः अवसादी चट्टानों में मिलते है । जीवाश्म के अध्ययन से भूतकाल की अलग-अलग अवस्था से संबंधित जीव की रचना और वातावरण को समझने का अवसर मिलता है और समय के साथ उनमें होनेवाले परिवर्तनों की एक रूपरेखा बनती है जिससे क्रमश: विकास की दिशा का अनुमान होता है।
- कुछ जीवों का पूरा जीवाश्म रिकॉर्ड उपलब्ध है और उनके क्रमविकास का पूरा ज्ञान प्राप्त हो चुका है। घोड़ा तथा मानव का क्रम विकास निम्न तरह से हुआ है-
- घोड़ा का क्रम विकास : - Eohippus → Miohippus → Merychyhippus → Plionippus → Equs (Modern Horse)
- मानव का क्रम विकास :- Dryopithecus → Rampaithecus → Austrilopithecus → Homo Eroctus (जंगली मानव) → Early Homosapiens → Neanderthal → Cromagnon Man → Modern Man
- क्रमविकास को समझने हेतु अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैमार्क तथा डार्विन का सिद्धांत ही महत्वपूर्ण है।
- आकारिकीय प्रमाण (Morphological Evidences)
लैमार्कवाद (Lamarkism)
- जिन वैप्टिस्ट लैमार्क पहले ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने विकासवाद का सिद्धांत दिया। लैमार्क का विकासवाद का सिद्धांत 1809 में प्रकाशित उनकी पुस्तक Philosophic Zoologigue में प्रकाशित हुआ था। लैमार्क के विकासवाद के सिद्धांत को लैमार्कवाद कहा जाता है-
- लैमार्कवाद के प्रमुख बातें निम्न है-
- जीव आकार में वृद्धि : जीव के अंदर की शक्ति शरीर के विभिन्न अंगों की वृद्धि करती है।
- प्रकृति का सीधा प्रभाव : अंगों की वृद्धि से जंतुओं में रचनात्मक परिवर्तन आ जाता है। इन परिवर्तन पर प्रकृति का बहुत ही प्रभाव पड़ता है। वातावरण के परिवर्तन से जंतुओं को नई आवश्यकताएँ होती है। नई आदतें लगती है।
- उपयोग और अनुपयोग : जंतुओं में नई आदतें लगने के कारण कुछ अंगों का अधिक उपयोग होता है जिससे वे सुगठित और अधिक विकसित होते है और कुछ अंगों के अनुपयोग के कारण ह्रास हो जाता है। इस तरह जंतु के रचना आदतों और गठन में परिवर्तन आ जाता है। इन लक्षणों लक्षणों को उपार्जित लक्षण कहते हैं।
- उपार्जित लाणों की वंशागति : जंतु के जीवनकाल में ये उपार्जित गुण प्रजनन के माध्यम से दूसरी पीढ़ी में चले जाते हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये लक्षण संचित होकर एक नई जीव का निर्माण करता है।
- लैमार्क के नियम की पुष्टि लंबी गर्दन वाले जिराफ के विकास से होता है। वर्तमान में लंबी गर्दनवाला जिराफ किसी छोटी गर्दन वाला पूर्वज का वंशज समझा जाता है। ये जंतु घास चरते थे, लेकिन जब घास की कमी हो गयी तो ये पेड़ की पत्तियाँ खाने लगे। इस आदत के कारण पेड़ों की पत्तियों तक पहुँचने के लिए गर्दन का अधिक उपयोग करना पड़ा और इस प्रकार के तत् उपयोग से गर्दन लंबी होती गई। इस उपार्जित लक्षण का पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागति होती रही अंततः लंबी गर्दन वाले जिराफ का विकास हुआ।
- लामार्कवाद का कई वैज्ञानिक आलोचना किये हैं, उन वैज्ञानिकों का मानना है कि उपार्जित लक्षणों की वंशागति नहीं होती है। जर्मन वैज्ञानिक वाईसमान ने 21 पीढ़ियों तक चूहे के पूँछ को काटकर यह यह प्रमाणित किया कि कटे पूँछवाले चूहे की संतानों में हर पीढ़ी में पूँछ उपस्थित रह जाता है।
- वर्तमान समय में लमार्कवाद में वैज्ञानिकों की पुनः अभिरूचि उत्पन्न हुई तथा लामार्कवाद की पुष्टि हेतु कई प्रायोगिक प्रमाण भी प्रस्तुत किये गये है । लामार्कवाद के पुनर्जागरण को नव-लामार्कवाद कहा जाता है।
डार्विनवाद (Darwinism)
- चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने क्रमविकास की प्रक्रिया की व्याख्या के लिए प्रसिद्ध प्राकृतिक चुनाव (Natural Selection) का सिद्धान्त दिया, जिसे संक्षेप में डार्विनवाद कहा जाता है।
- चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त अपनी पुस्तक 'The Origin of Species' में व्यक्त किये है। डार्विन ने जब अपना सिद्धान्त प्रतिपादित कर लिए तब उन्होंने देखा कि अल्फ्रेड रसेल वैलेसके क्रमविकास के सिद्धान्त भी वही है। चूँकि वैलेस अपने सिद्धान्त डार्विन से पहले ही प्रतिपादित कर लिए थे जिसेक कारण डार्विन बैलेस के लेख को ही प्रकाशित करने का विचार किया परंतु डार्विन के दोस्त हूकर और लायल ने उन्हें ऐसा करने के लिए मना कर दिया। अंत में डार्विन तथा वैलेस का संयुक्त सिद्धान्त 1859 में 'The Origin of Species' नामक पुस्तक में प्रकाशित हुई। इस सिद्धान्त को स्थापित करने में स्पेंसर नामक वैज्ञानिक ने भी योगदान दिया।
- डार्विनवाद अथवा प्राकृतिक चुनाव की प्रमुख बातें निम्न है-
- विभिन्नता की सर्वव्यापकता : लैंगिक जनन से उत्पन्न संतानों में विभिन्नता (Variation) अवश्य पायी जाती है। संतानों में पाये जाने वाले विभिन्नता उपयोगी और कुछ अनुपयोगी होते हैं। उपयोगी विभिन्नता संतानों को जीवित रहने के लिए अधिक समर्थ बनाता है।
- प्रजनन की तेज दर : जीवों में प्रजनन की असीम क्षमता होती है। जीव गुणोत्तर अनुपात में प्रजनन करते हैं।
- अस्तित्व के लिए संघर्ष : प्रजनन की अत्यधिक क्षमता होने के कारण जीव की संख्या शीघ्रता से बढ़ते हैं लेकिन पृथ्वी पर भोजन और रहने के लिए स्थान सीमित है। इसलिए जीवों के बीच अस्तित्व के लिए संघर्ष होने लगता है। यह संघर्ष तीन प्रकार से हो सकते हैं-
- एक ही जाति के प्राणियों में भोजन और आवास हेतु संघर्ष जाए तो इसे अंतरजातीय संघर्ष कहा जाता है।
- विभिन्न जातियों (मनुष्य-सर्प) के बीच होने वलो संघर्ष को अंतरजातीय संघर्ष कहा जाता है।
- प्राकृतिक आपदा जैसे- ठंड, भूकंप, बाढ़ ज्वालामुखी उद्गार के कारण जब जीवों के बीच भोजन तथा आवास हेतु संघर्ष होता है तो इसे पर्यावरणीय संघर्ष कहा जाता है।
- योग्यतम की जीविता : अस्तित्व के लिए होने वाले संघर्ष में वही योग्यतम होते हैं जो शक्तिशाली होते हैं तथा जिनमें उपयोगी विभिन्नता मौजूद रहते हैं। अनुपयोगी विभिन्नता वाले जीव संघर्ष में मारे जाते हैं। इस बात योग्यतम की जीविता (Survival of fittest) कहते हैं।
- उपयोगी विभिन्नता की वंशागति: प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है और उपयोगी विभिन्नताएँ की दूसरी पीढ़ी में वंशागत होती. ताकि दूसरी पीढ़ी भी जीवन संघर्ष में सफल हो सके।इस प्रकार डार्विन का प्राकृतिक च एक ऐसी प्रक्रिया है। उपयोगी विभिन्नता होते हैं। उपयोगी विभिन्नता से जीवन- सनम प्रकृति ऐसे जीवों का चयन करती है जिनमें लाभ मिलता है। ये विभिन्नताएँ प्रजनन के माध्यम से दूसरी पीढ़ी में पहुँचा देते हैं और अंत में संतान से नई जाति का उद्भव होता है।
- डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त को अधिकांश वैज्ञानिकों ने अपनी मान्यता दी है लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त की आलोचना भी किया है। मुख्यतः निम्न बातों को लेकर डार्विन के सिद्धान्त पर आपत्ति उठाई जाती हैं-
- डार्विन ने अपने सिद्धान्त में जिस 'उपयोगी विभिन्नता' पर सर्वाधिक बल दिये थे, वे विभिन्नता जीवों में किस प्रकार उत्पन्न होते हैं, यह उत्तर डार्विन नहीं दे पाये। लेकिन मेंडल के वंशागति सिद्धान्त ने आगे चलकर यह बताने में सफल रहा कि विभिन्नता का स्त्रोत जीन तथा जीन में होने वाला उत्परिवर्तन है।
- प्राकृतिक चयन और डार्विन के स्पष्टीकरण के संबंध में आलोचकों का कहना था कि यदि प्राकृतिक चयन जीवों को केवल पृथ्वी पर बचाये रखने और छाँट देने में ही सीमित है, तो नये जीव की उत्पत्ति के लिए यह चयन किस प्रकार उत्तरदायी हो सकता है।
- डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त जीवों में अवशेषी अंगों की उपस्थिति तथा योजक कड़ी की कोई व्याख्या नहीं करता है।
- डार्विन के प्राकृतिक चयन क्रमविकास (Evolution) के जानकारी देता है इससे जीवों की उत्पत्ति (Origin) का पता नहीं चलता है।
- अनुवंशिकी (Genetics) के क्षेत्र में कई खोज होने के बाद डार्विवाद को अनुवंशिकी शाखा से मिलाकर एक नया रूप दिया गया है, जिसे नव- डार्विनवाद (Neo- Darwinism) कहते हैं। नव- डार्विनवाद के अनुसार जैव विकास ( Organic Evolution) में विभिन्नताएँ, उत्परिवर्तन, अनुकूलन, प्राकृतिक चयन तथा जातियों का पृथक्करण की भूमिका होती है।
उत्परिवर्त्तन का सिद्धान्त (Mutation Theory)
- उत्परिवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन डच वैज्ञानिक ह्यूगो डी ब्रीज ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार उत्परिवर्तन ही विकास का वास्तविक कारण है। ह्यूगो डी ब्रीज ने इवनिंग प्रिमरोज या ईनोथेरा लैमार्कियाना पौधा पर अपने लंबे अध्ययन के पश्चात् उत्परिवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
- उत्परिवर्तन सिद्धान्त की मुख्य बातें निम्न हैं-
- डी ब्रीज के अनुसार नई जाति का निर्माण छोटी-छोटी विभिन्नताओं के एकत्र होने के कारण नहीं वरन जनकों (Parent) की संतानों में अचानक एवं स्पष्ट परिवर्तन उत्पन्न होने के कारण उत्पन्न होता है। अचानक उत्पन्न परिवर्तन उत्परिवर्त्तन कहलाता है।
- अचानक उत्पन्न विभिन्नताएँ या उत्परिवर्तन किसी एक लक्षण के आकार एवं मात्रा में ही नहीं होती वरन अनेक बिल्कुल स्पष्ट भागों में होती है और जब एक पीढ़ी से उत्परिवर्तन उत्पन्न हो जाती है तब इसका प्रजनन वास्तविक रूप से होने लगता है। इस प्रकार एक नवीन जाति का निर्माण हो जाता है।
- नई जातियों का निर्माण धीरे-धीरे सैकड़ों वर्ष से चल रहे प्राकृतिक चयन के परिणामस्वरूप नहीं होता बल्कि अचानक होता है।
- उत्परिवर्तन जीवों के लिए हमेशा लाभदायक नहीं होते, इसमें लाभ अथवा हानि दोनों ही संभावना रहती है।
