पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है | मनुष्य के उत्सर्जन तंत्र का वर्णन कीजिए | मानव उत्सर्जन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए

 पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है | मनुष्य के उत्सर्जन तंत्र का वर्णन कीजिए | मानव उत्सर्जन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए


उपापचय के दौरान शरीर में निर्मित हानिकारक एवं अनावश्यक पदार्थों का शरीर से निष्कासन ही उत्सर्जन (Excretion) कहलाता है। पोषण तथा श्वसन के तरह ही उत्सर्जन एक अनिवार्य जैविक प्रक्रिया है।


General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में उत्सर्जन

  • सजीवों का जीवन बनाये रखने हेतु इनके शरीर में स्थित सभी कोशिकाएँ निरंतर कार्य करते रहता है। कोशिकाओ का अधिकांश कार्य जैव रसायनिक क्रियाओ (Bio-Chemical Reaction) के रूप में होता है। कोशिकाओ में होने वाले समस्त जैव रसायनिक क्रियाओं को सम्मिलित रूप से उपापचय (Metabolism) कहते हैं
  • सजीवों के शरीर में होने वाले उपापचय के दौरान जहाँ एक ओर कई महत्वपूर्ण पदार्थों का निर्माण होता है, जो सजीव के जीवन बनाये रखने हेतु आवश्यक है वही दूसरी ओर कुछ ऐसे पदार्थ बनते है जो शरीर के लिये अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिकारक भी होते है।
  • उपापचय के दौरान शरीर में निर्मित हानिकारक एवं अनावश्यक पदार्थों का शरीर से निष्कासन ही उत्सर्जन (Excretion) कहलाता है। पोषण तथा श्वसन के तरह ही उत्सर्जन एक अनिवार्य जैविक प्रक्रिया है।
  • शरीर के कोशिकाओ में होने वाले समस्त 1 जैव-रसायनिक प्रक्रिया जलीय माध्यम में ही सम्पन्न होते है, अतः शरीर में जल का संतुलित मात्रा का होना अतिआवश्यक है। सजीवों के शरीर में जिस प्रक्रिया के द्वारा जल का संतुलन बना रहता है, उसे ओस्मोरेगुलेशन (Osmoregulation) कहते है।
  • सजीवो के शरीर में उत्सर्जन तथा ओस्मोरेगुलेशन की प्रक्रिया साथ-साथ सम्पन्न होता है।
  • उत्सर्जन की प्रक्रिया पौधों तथा मानव शरीर दोनों में होता है, परंतु अलग-अलग तरीके से। प्रकृति ने पौधों तथा जंतु (मानव) में इस प्रकार सामंजस्य बिठाया है कि जो जंतुओं के लिये उत्सर्जन योग्य पदार्थ है, वह पौधों के लिये उपयोगी है तथा जो पौधों के लिये उत्सर्जन योग्य है, वह जंतुओं के लिये उपयोगी है।

पौधों में उत्सर्जन (Excretion in Plant)

  • पौधों में उत्सर्जित पदार्थ बहुत ही कम मात्रा में बनते है, और उसका भी निर्माण धीमे गति से होता है। पौधों में जंतुओं के भाँति उत्सर्जित योग्य पदार्थ को बाहर निकालने हेतु कोई उत्सजन-अंग नहीं पाये जाते है अर्थात् पौधों में उत्सर्जन - तंत्र (Excretory System) नामक कोई रचना नहीं है।
  • पौधों में बनने वाले अपशिष्ट था उत्सर्जन योग्य पदार्थ निम्नलिखित तरीके से बाहर निकल जाते है-
    1. पौधों में बनने वाले गैसीय अपशिष्ट पदार्थ जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, जलवाष्प को पौधे रंध्र (Stomata) तथा वातरंध्र (Lenticles) के द्वारा विसरण विधि से वायुमंडल में निष्कासित कर देते है।
    2. पौधों में बनने वाले ठोस एवं द्रव अपशिष्ट पदार्थ जैसे- टैनिन, रेजिन, गोंद, लैटेक्स को पौधे पत्तियों, छालों तथा फलों में संचित करते है। पत्तियों को गिराकर, छाल छुड़ाकर और फलो को गिराकर पौधे इन ठोस और द्रव अवशेषो से छुटकारा पा लेते है।
    3. जलीय पौधे उत्सर्जी पदार्थो को विसरण विधी द्वारा सीधे जल में ही निष्कासित करते है तथा कुछ स्थलीय पौधे कुछ उत्सर्जित पदार्थ को मृदा में भी निष्कासित करते है ।
  • पौधों में जंतुओ के भाँति वास्तविक उत्सर्जन नहीं होता है, क्योंकि पौधो में कई ऐसे पदार्थ बनते है जो पौधों के लिये अनुपयोगी होते परंतु ये अनुपयोगी पदार्थ पौधे के लिये हानिकारक नहीं होते है।

जंतुओ में उत्सर्जन (Excretion in Animals)

  • जंतुओ में उत्सर्जित होने वाले पदार्थ में मुख्य रूप से नाइट्रोजन युक्त पदार्थ जैसे- अमोनिया, यूरिया तथा यूरिक अम्ल आते है। इन नाइट्रोजन युक्त पदार्थ में अमोनिया जंतुओ के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक होते है । यह अमोनिया जंतुओं के शरीर में अमीनो अम्ल (प्रोटीन) तथा न्यूक्लिक अम्ल के ऑक्सीकरण से उत्पन्न होता है।
  • जंतुओं में उत्सर्जन योग्य पदार्थ के आधार पर इन्हें निम्न तीन वर्गों में बाँटा गया है-
    1. अमोनियोटेलिक (Ammoniotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ अमोनिया के रूप में उत्सर्जित होता है तो इस प्रकार के जंतु अमोनियोटेलिक कहलाते है।
      • जलीय एककोशिकीय जंतु (प्रोटिस्टा ), जलीय कीट, स्पंज (पोरीफेरा), हाइड्रा (सिलेनटरेटा) मछलियाँ, मेढ़क के टेडपॉल लव अमोनियोटेलिक जीव के उदाहरण है ।
    2. यूरियोटेलिक (Ureotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ यूरिया के रूप में उत्सर्जित होते है तो ऐसे जीव को यूरियोटेलिक कहा जाता है।
      • एम्फीबिया वर्ग के वयस्क जीव, स्तनधारी वर्ग के जीव (जैसे- मनुष्य) यूरियोटेलिक जीव के उदाहरण है।
    3. यूरिकोटेलिक (Uricotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ यूरिक अम्ल के रूप में उत्सर्जित होते है तो ऐसे जीव को यूरियोटेलिक कहा जाता है।
      • स्थलीय कीट, सरीसृप तथा पक्षी वर्ग के जीव यूरिकोटेलिक के श्रेणी है में आते है।
  • उपर्युक्त उत्सर्जी पदार्थ के अलावे आर्निथीन तथा गुआनिन नामक उत्सर्जी पदार्थ क्रमश: पक्षियो तथा मकड़ी के शरीर से उत्सर्जित होते है।
  • विभिन्न प्रकार के जंतुओं में उत्सर्जन हेतु अलग-अलग प्रकार के अंग होते है। एक कोशिकीय जीवों में उत्सर्जन की क्रिया कोशिका के सतह से विसरण विधि द्वारा सम्पन्न होता है

मानव का उत्सर्जन (Human Excretion)

  • मानव शरीर में उत्सर्जन हेतु एक विकसित उत्सर्जन- तंत्र (Excretory System) बना होता है। मानव के उत्सर्जन तंत्र के अंतर्गत एक जोड़ा वृक्क (Kidney), एक जोड़ी मूत्रवाहिनी नली (Ureters ), एक मूत्राशय (Urinary bladder) और एक मूत्रनली (Urethra) आते है।
  • नर मानव (male) में उत्सर्जन तथा प्रजनन मार्ग एक ही होता है, परंतु मादा मानव में (Female) उत्सर्जन तथा प्रजनन मार्ग अलग-अलग होते है।

मानव वृक्क (Human Kidney)

  • मानव शरीर में एक जोड़ा किडनी पाया जाता है। प्रत्येक किडनी ठोस, गहरे भूरे लाल रंग की होती है, जिसकी आकृति से के बीज के समान होता है।
  • प्रत्येक किडनी की लम्बाई 10-12 cm, चौड़ाई 5-7 cm तथा मोटाई 2-3 cm होता है। प्रत्येक किडनी का भार 120 से 170 ग्राम के बीच होता है।
  • किडनी की बाहरी सतह उत्तल (Convex) तथा भीतरी सतह अवतल (Concave) होता है। किडनी की भीतरी अवतल सतह को हाइलम (hilum) कहा जाता है। हाइलम के भीतर पाये जाने वलो कीप के समान रचना को पेल्विस (Pelvis) कहते है।
  • किडनी के हाइलम वाले भाग से ही वृक्क - धमनी (Renal artery) किडनी में प्रवेश करती है तथा वृक्क - शिरा (Renal vein) बाहर निकलती है। किडनी के हाइलम वाले भाग से मूत्रवाहिनी नली निकलती है जो मूत्राशय से जुड़ा रहता है।
  • किडनी के बाहरी परत पर संयोजी उत्तक तथा आरेखित पेशी का बना एक परत होता जिसे कैप्सूल ( Capsule) कहते है।
  • किडनी का आंतरिक भाग दो स्पष्ट भागों में बँटा रहता है। जिसमें बाहरी भाग को कॉर्टेक्स (Cortex) तथा भीतरी भाग को मेडुला (Medulla) कहते है। किडनी के मेडुला भाग का निर्माण 15 से 16 पिरामिड जैसी संरचनाओं के द्वारा होता है, इसे वृक्क - शंकु (Pyramid of the Kidney) कहते है । 
  • प्रत्येक किडनी में सूक्ष्म, लंबी तथा कुंडलित नलिका (Coiled shaped) पायी जाती है, जिसे नेफ्रॉन (Nephron ) कहते है। नेफ्रॉन को किडनी की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई कहा जाता है।
  • एक किडनी में लगभग 10 लाख नेफ्रॉन पाये जाते है। प्रत्येक नेफ्रॉन का व्यास 20 से 60um तथा लंबाई 3 से 3.5 cm तक होता है।
  • किडनी के प्रत्येक नेफ्रॉन की संरचना को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है, ये भाग है- बोमेन्स कैप्सूल, समीपस्थ कुण्डलीत नलिका, हेनले का लूप, दूरस्थ कुण्डलीत नलिका तथा संग्राहक नली।
  • मानव किडनी का मुख्य कार्य है रक्त से यूरिया को अलग करना तथा मूत्र का निर्माण करना । किडनी का यह कार्य नेफ्रॉन के द्वारा ही सम्पन्न होता है।
  • वृक्क - धमनी (Renal artery) किडनी में यूरिया युक्त रक्त को लेकर प्रवेश करता है तथा साफ रक्त पुनः वृक्क शिरा के द्वारा किडनी से बाहर जाता है।
  • नेफ्रॉन के अग्र भाग की संरचना कप ( प्याला) के समान होता है, इसे ही बोमेन केप्सूल कहते है। बोमेन्स कैप्सूल में वृक्क धमनी की शाखाएँ केशनलियों का गुच्छा बनाती है जिसे ग्लोमेररूलस (Glomerulus) कहा जाता है। रक्त छनने की प्रक्रिया नेफ्रॉन के ग्लोमेररूलस में ही होता है।
  • ग्लोमेररूलस का एक सिरा वृक्क धमनी से जुड़ा रहता है, यह शिरा अभिवाही धमनिका ( Afferent arteriole) कहलाता है। ग्लोमेररूलस का दूसरा सिरा को अपवाही धमनिका (Efferent arteriole) कहते है यह वृक्क - शिरा से जुड़ा रहता है।
  • किडनी द्वारा रक्त से यूरिया को अलग करने तथा मूत्र निर्माण का कार्य तीन चरणों में पूर्ण होता है। यह तीन चरण निम्न है-
    1. अल्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration)
      • यह कार्य बोमेन्स कैप्सूल के ग्लोमेररूलस में उच्च दाब पर सम्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में रक्त के यूरिया ग्लूकोज, लवण आदि छनकर बोमेन्स कैप्सूल के दिवारों से छनते हुए वृक्क नलिका में आता है। रक्त में स्थित प्रोटीन के लिए बोमेन्स कैप्सूल की दिवार अपारगम्य होता है जिसके कारण रक्त से प्रोटीन नहीं छन पाता है।
      • किडनी द्वारा प्रति मिनट फिल्ट्रेट (रक्त का छनना) की गई मात्रा को ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट रेट (Glomerular filtration rate or GFR ) कहते है । एक स्वस्थ व्यक्ति का GFR 125 ml प्रति मिनट या 180 लीटर प्रतिदिन होता है। परंतु मनुष्य के दोनों किडनी से प्रति मिनट 1200-1500 ml रक्त गुजरता है ।
    2. ट्यूबलर पुनर्वशोषण (Tubular Reabsorption)
      • ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट पदार्थ जब वृक्क नलिकाओं से होकर गुजरता है तो वृक्क नलिकाओं के विभिन्न भाग की कोशिकाएँ उसमें उपस्थित उपयोगी पदार्थ जैसे- ग्लूकोज विभिन्न प्रकार के आयन, अतिरिक्त जल का पुनरावशोषण कर लेता है।
      • वृक्क नलिका ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट पदार्थ का 99 प्रतिशत भाग को अवशोषित कर लेती है शेष 1 प्रतिशत भाग मूत्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है। दोनों किडनी द्वारा प्रति मिनट 1 ml मूत्र का निर्माण किया जाता है।
    3. ट्यूबलर स्त्रवण (Tubular Scretion)
      • मूत्र निर्माण के दौरान नेफ़ॉन की नलिकाएँ H+ , K+ तथा अमोनिया जैसे पदार्थों को स्त्रावित करती है जो मूत्र के साथ मिल जाता है।
  • उपर्युक्त तीनों चरण के पूरा होने के बाद रक्त से अतिरिक्त यूरिया निकल जाता है तथा मूत्र का निर्माण हो जाता है। मूत्र मूत्रवाहिनी नली द्वारा मूत्राशय में आ जाते हैं तथा मूत्रमार्ग द्वारा शरीर के बाहर निकल जाते है और इस तरह उत्सर्जन की क्रिया सम्पन्न हो जाती है।
  • वयस्क मनुष्य के मूत्राशय में 250-300 ml मूत्र जमा हो सकता है परंतु 150ml मूत्र के जमा होते ही मूत्र त्याग की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिसे मिक्वुरीसन (Micturition) कहा जाता है।

मानव मूत्र (Human Urine )

  • मूत्र एक विशेष गंध युक्त जलीय तरल जो हल्के पीले रंग का होता है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य प्रतिदिन 1 से 1.5 लीटर मूत्र त्याग करता है। मानव मूत्र का विशिष्ट घनत्व 1.015 से 1.025 तक होता है।
  • मानव मूत्र में 96 प्रतिशत जल तथा शेष 4 प्रतिशत ठोस पदार्थ होता है जिसमें यूरिया की मात्रा 2 प्रतिशत होती है तथा शेष 2 प्रतिशत में यूरिक अम्ल, क्रिटेनिन, अमोनिया, लवण तथा कुछ मिनरल आयन पाये जाते हैं।
  • मानव मूत्र का pH मान 6 होता है अर्थात् यह अम्लीय होता है। मानव मूत्र का pH परिसर 4.5-8.2 तक होता है।
  • रक्त में यूरिक अम्ल की सामान्य मात्रा 2-3mg/100ml होता है। मूत्र के माध्यम से प्रतिदिन 1.5-2 mg यूरिक अम्ल का उत्सर्जन होता है। मूत्र का पीला रंग इसमें उपस्थित विशेष रंजक (Pigment) यूरोक्रोम के कारण होता है।
  • मूत्र-त्याग का मात्रा बढ़ना डाययूरेसिस (Diuresis) कहलाता है तथा जो पदार्थ मूत्र त्याग की मात्र को बढ़ाते हैं उसे डाययूरेटिक (Duretic) कहा जाता है। यूरिया तथा ग्लूकोज डाययूरेटिक पदार्थ है, यह मूत्र स्त्राव को बढ़ा देता है। Dicsresis प्रोटीन युक्त भोजन के अभाव में भी उत्पन्न होता है।

किडनी की अनियमिताएँ (Disorders of Human Kidney)

  • मूत्र की संरचना में जब कोई असमान्य पदार्थ की उपस्थिति हो जाती है तब किडनी के कार्यप्रणाली बाधित हो जाता है। किडनी की कुछ असमान्य अवस्थाएँ निम्नलिखित है-
    1. Gycosuria : जब मूत्र में ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा हो जाता है तो इस स्थिति को ग्याइकोसुरिया कहा जाता है। इस बीमारी को डायबिटीज कहा जाता है।
    2. Uraema : मूत्र में यूरिया की मात्रा का बढ़ना यूरेमिया कहलाता है।
    3. Oligurea and Anurea : कभी-कभी संक्रमण या उच्च रक्तचाप के कारण ग्लोमेरूयुलस तथा बोमेन्स कैप्सूल खराब हो जाते हैं, जिससे रक्त छनने की क्रिया धीमी पर जाती है, इस स्थिति को ओलीगुरिया कहते है। जब रक्त छनने की की प्रक्रिया रूक जाये तो इस स्थिति को ऐनुरिया कहते है।
    4. Haematuria : मूत्र में रूधिर कोशिका (RBC, WBC, Platelets) की उपस्थिति हेमादुरिया कहलाता है।
    5. Albuminuria : जब रक्त में एल्ब्यूमीन प्रोटीन की अधिकता हो जाती है तब यह मूत्र के साथ बाहर निकलती है। इस स्थिति को एल्ब्यूमिन्यूरिया कहते है तथा इस बिमारी को नेफ्राइटिस कहते है। 
    6. Haemoglobinuria : जब मूत्र के साथ हिमोग्लोबिन रंजक निकलने लगे तो इसी स्थिति को हीमोग्लोबिन्यूरिया कहते है।
    7.  Diabetes insipidus : जब मूत्र के साथ जल अधिक मात्रा में बाहर निकलने लगे तो इस स्थिति को डायबिटीज इंसीपीडस कहते है। यह तब होता है जब हाइपोथैलेमस ग्रंथि के द्वारा भैसोप्रेसिन हॉर्मोन का कम स्त्राव होता है। भैसोप्रेसिन की सूई लेने से यह समस्या दूर हो जाती है, जिस कारण भैसोप्रेसिन हॉर्मोन को एंटीडाययूरेटिक (मूत्र रोकने वाला) हॉर्मोन कहा जाता है।
    8. Renal Calcai : जब किडनी में अघुलनशील लवण के क्रिस्टल (जैसे- कैल्सियम ऑक्सेलेट) जमा होने लगते हैं तो इन्हें रीनल केलकाई कहते है । सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे पथरी कहा जाता है।
  • कुछ विशेष परिस्थिति में अगर किडनी कार्य करना बंद कर दे, तो ऐसी स्थिति में किडनी का कार्य एक अतिविकसित मशीन के द्वारा करवाया जाता है। यह मशीन डायलिसिस मशीन (Dialysis Machine) कहलाता है। इस मशीन में एक टंकी होता है जिसे डायलाइजर (Dialyser) कहा जाता है। यह मशीन एक कृत्रिम किडनी के तरह कार्य करता है। गौरतलब है कि इस मशीन का निर्माण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए अंतरिक्ष में पानी साफ करने के लिए हुआ था, परंतु आश्चर्यजनक तरीके से इसका इस्तेमाल चिकित्सा - क्षेत्र में होने लगा ।
  • डायलिसिस के समय रोगी के शरीर का रक्त धमनी से निकालकर 0°C तक ठंडा कर लिया जाता है फिर उसे डायलाइसिस मशीन में भेज दिया जाता है। मशीन द्वारा रक्त शुद्ध होने के बाद उसे शरीर के तापक्रम में लाकर रोगी के शरीर में शिराओं के माध्यम से भेज दिया जाता है।
  • डायलिसिस मशीन द्वारा रक्त शुद्धिकरण की प्रक्रिया हिमोडायलिसिस (Haemodialysis) कहलाता है। यह अत्यंत विकसित तथा खर्चीली विधि है। 

सहायक उत्सर्जी अग (Accessory Excretory Organe)

  1. त्वचा (Skin)— मनुष्य के त्वचा में स्वेद ग्रंथि (Sweat gland) तथा सीबम ग्रंथि पाया जाता है । स्वेद ग्रंथि से पसीना निकलता है जो शरीर के तापमान को नियंत्रित रखता है एवं शरीर में जल एवं लवणों की मात्रा भी नियंत्रित रखता है। मनुष्य के पसीने मे जल, लवण, यूरिया, एमिनो अम्ल आदि पाया जाता है। पसीने की प्रकृति अम्लीय होती है। त्वचा के सीबम ग्रोथ तैलीय पदार्थ या सीबम स्त्रावित होता है जो त्वचा तथा बालों का चिकना और जलरोधी बनाए रखता है।
  2. फेफड़ा (Lungs)– श्वसन के दौरान उत्पन्न होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प का निष्कासन फेफड़ों के द्वारा ही होता है। फेफड़ों के द्वारा प्रतिदिन 18 लीटर कार्बन डाइऑक्साइड तथा 400 जल शरीर से निकलता है।
  3. यकृत (Liver)- शरीर में प्रोटीन के पाचन के उपरांत अमोनिया की उत्पत्ति होती है, यह शरीर के लिए विषैला होता है। यकृत विषैले अमोनिया को यूरिया में बदलता है। यूरिया रक्त में आ जाता अंतत मूत्र के द्वारा शरीर के बाहर आ जाता है।
  4. बड़ी आंत (Large Intestine)- पाचन के दौरान बनने वाले अघुलनशील लवण जैसे- लोहा, कैल्सियम, पोटैशियम, फॉस्फेट आदि तथा अपच भोज्य पदार्थ को बड़ी आंत मल के रूप में शरीर से बाहर निकालने का कार्य करती है।
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