दिल्ली सल्तनत का स्वरूप एवं प्रशासन | इतिहास

दिल्ली सल्तनत का स्वरूप एवं प्रशासन
> दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System of Delhi Sultnat)
दिल्ली सल्तनत के स्वरूप की विवेचना कीजिए. क्या दिल्ली सल्तनत एक साम्प्रदायिक राज्य था ?
दिल्ली सल्तनत का स्वरूप वास्तव में क्या था, अत्यन्त विवाद का विषय है. इस पर कुछ विद्वानों ने इसे धर्मनिरपेक्ष तथा कुछ ने इसे धर्म-आधारित राज्य सिद्ध करने का प्रयास किया है.
आधुनिक लेखक डॉ. आई. एच. कुरैशी के अनुसार “ दिल्ली सल्तनत धर्म पर केन्द्रित अवश्य थी, किन्तु यह पूर्णतया धर्म पर आधारित नहीं थी, क्योंकि धर्म आधारित राज्य की प्रथम महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें निर्दिष्ट पुरोहित वर्ग का शासन होना चाहिए और दिल्ली सल्तनत में यह विशेषता विद्यमान नहीं थी.”
यदि ग़हराई से देखा जाए तो यह तथ्य खोखला प्रतीत होता है और वास्तविकता की उपेक्षा करता है. गुलाम वंश से लेकर लोदी वंश तक के काल में मुस्लिम कानून ही सर्वोच्च होते थे, व्यवहार विधि भी उसी के अधीन थी और वास्तव में उसी में लीन हो जाती थी.
यद्यपि मुस्लिम उलेमा निर्दिष्ट एवं वंशानुगत नहीं होते थे, किन्तु ये उतने ही धर्मान्ध एवं पक्षपातपूर्ण थे, जितने कि पुरोहित हो सकते थे और वे सदैव कुरान के कानूनों को कार्यान्वित करने एवं मूर्तिपूजा तथा इस्लामद्रोह का मूलोच्छेदन करने पर जोर दिया करते थे.
दिल्ली सल्तनत के शासकों का आचरण भी कुरान के नियमों द्वारा नियन्त्रित होता था. वह अपने निजी जीवन में ही नहीं, बल्कि शासन के सम्बन्ध में भी इन नियमों का में पालन करता था. यदि वह कुरान के नियमों के अनुसार अपना शासन नहीं चलाता तो वह अपनी प्रजा द्वारा अनुमोदित सुल्तान नहीं रहता था इसलिए भारत में दिल्ली सुल्तानों का आदर्श इस्लामी राज्य कहा जा सकता है. देश की समस्त जनता को मुसलमान बनाना, देशी धर्मों का मूलोच्छेदन करना व जनता को मुहम्मद का धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य करके 'दार-उल-हर्ब' को 'दार-उल-इस्लाम' में परिवर्तन करना ही दिल्ली के अधिकांश सुल्तानों का लक्ष्य था. अतः स्पष्ट रूप से दिल्ली सल्तनत को एक साम्प्रदायिक राज्य की संज्ञा दी जा सकती है.
> तुर्की सल्तनत में सुल्तान और खलीफा के सम्बन्ध
इस्लामी प्रभुत्व के सिद्धान्त के अनुसार संसार के सभी मुसलमानों का चाहे वे कहीं भी हो एक शासक होता है और उसे 'खलीफा' कहते हैं. उन दिनों जबकि खलीफा की शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी, वह खिलाफत के विभिन्न प्रान्तों के लिए सूबेदारों की नियुक्ति करता था. जब कोई सूबेदार स्वतन्त्र शासक बन जाता जब भी वह अपने आपको स्थायित्व देने के लिए वह खलीफा के नाम का सहारा लेकर अपने को खलीफा का अधीनस्थ सहायक या सामन्त घोषित करता, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से एक स्वतन्त्र शासक के समान ही व्यवहार करता था.
1558 ई. में मंगोल नेता हलाकू ने अन्तिम अब्बासी खलीफा मुस्तसीम की हत्या कर खिलाफत का अन्त कर दिया, परन्तु फिर भी उसका आडम्बर कायम रहा. उस युग में प्रचलित प्रथा के अनुसार गुलाम वंश से लेकर तुगलक वंश के सभी शासकों ने, (कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी को छोड़कर) अपने को- खलीफा का नाइब माना तथा उसके नाम खुतबा पढ़ा और उसके नाम से सिक्के ढलवाए.
इस प्रकार कहा जा सकता है कि, तुर्क सुल्तानों ने खलीफा के अधीन अपने आपको दर्शाया, लेकिन यह मात्र जनता का विश्वास अपने में बनाए रखने के लिए दिखावा मात्र था.
आधुनिक मुसलमान लेखकों ने इस्लामी जगत की एकता को सिद्ध करने के लिए इसे आवश्यकता से अधिक महत्व दिया है, जबकि तथ्य यह है कि दिल्ली के सुल्तानों ने कभी भी खलीफा को अपना सम्प्रभु स्वीकार नहीं किया.
> दिल्ली सल्तनत : केन्द्रीय प्रशासन (Central Administration)
दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय एवं अरबी-फारसी व्यवस्थाओं का सम्मिश्रण थी जिसमें खलीफा को वैधानिक रूप से सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे और सुल्तान उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था, परन्तु व्यावहारिक रूप से सुल्तान और उसकी सल्तनत का खलीफा से कोई लेना-देना नहीं था. सुल्तान केवल औपचारिकतावश खलीफा के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता था.
> प्रशासन में सुल्तान की स्थिति
प्रशासन में सुल्तान सर्वोच्च कार्यपालिका, सर्वोच्च सेनाध्यक्ष, सर्वोच्च विधिनिर्माता और सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था. उसकी शक्तियाँ व्यापक थीं और वह निरंकुश था. उसकी शक्ति का आधार उसकी सेना थी जिसके द्वारा उसकी स्वयं की रक्षा और उसकी इच्छाओं का क्रियान्वयन होता था.
यद्यपि सुल्तान सर्वोच्च एवं पूर्णतया निरंकुश था, परन्तु फिर भी उस पर व्यक्तिगत नियमों, प्रभावशाली मन्त्रियों, सेना, उलेमा तथा इस्लाम का नियन्त्रण था. उसका प्रमुख कर्त्तव्य राज्य एवं प्रजा की सुरक्षा करना, प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखना, धर्मानुकूल आचरण करना एवं इन्साफ करना था. वास्तव में सुल्तान केन्द्रीय प्रशासन में धुरी के समान था जिसके द्वारा समस्त प्रशासनिक गतिविधियाँ नियन्त्रित एवं संचालित होती थीं.
> मजलिस-ए-खलवत
सुल्तान की सहायता के लिए यह एक मन्त्रियों की परिषद् थी जिसमें प्रमुख रूप से वजीर, सैन्य विभाग का प्रधान, राजकीय आदेशों को पालन करवाने वाला तथा विदेशी राज्यों से सम्पर्क रखने वाले पदाधिकारी होते थे. ये सभीं सुल्तान को परामर्श देते थे. जिसे मानना या न मानना सुल्तान की इच्छा पर निर्भर करता था.
> केन्द्रीय प्रशासन के मुख्य पदाधिकारी
(1) वजीर – यह सुल्तान का प्रमुख सहयोगी एवं परामर्शदाता था, जिसे ख्वाजा जहाँ की उपाधि मिलती थी. वह वित्तीय विभाग जिसमें दीवान-ए-इसराफ (लेखा परीक्षा) दीवान-ए-विजारत (राजस्व विभाग), दीवान-ए-इमारत (लोक निर्माण विभाग), दीवान-ए-कोही (कृषि विभाग) के मन्त्रियों का प्रभारी था. इसके साथ ही वह सरकार की सम्पूर्ण मशीनरी का भी अध्यक्ष होता था.
वजीर का मुख्य कार्य नागरिक सेवकों की नियुक्ति और उनके कार्यों का निरीक्षण करना था. वह राजस्व एकत्र करने के लिए उत्तरदायी था. वह व्यय के विभिन्न विभागों द्वारा प्रस्तुत हिसाबों की जाँच करता था. वह किसी भी समय सुल्तान से मिल सकता था. संक्षेप में सुल्तान के बाद सल्तनत में. का सर्वोच्च अधिकारी वजीर ही था.
(2) आरिज-ए-मुमालिक - यह सैन्य विभाग का प्रधान अधिकारी था एवं इसका कार्यालय दीवान-ए-आरिज कहलाता था. यह सेना में सैनिकों की भर्ती करने, सैनिकों एवं घोड़ों का निरीक्षण करने, उनका हुलिया रखने का कार्य प्रमुख रूप से यही करता था. सल्तनत चूँकि सैनिक सरकार थी. अतः इसका पद बहुत अधिक महत्वपूर्ण था.
(3) दीवान-ए-रसालत – इसके विषय में विद्वानों ने भिन्नभिन्न विचार प्रस्तुत किए हैं, किन्तु डॉ. ए. एल श्रीवास्तव एवं हबीबउल्लाह ने इसे विदेश मन्त्रालय माना है, जिसमें कूटनीतिक पत्र-व्यवहार और विदेशों से आने वाले और भेजे जाने वाले राजदूतों से सम्बन्धित कार्य होता था.
(4) दबीर - ए - मुमालिक – इसके विभाग को 'दीवान-एइंशा' कहा जाता था. यह विभाग स्थानीय शासन की देखभाल के अतिरिक्त शाही पत्र व्यवहार का प्रबन्ध करता था. शाही घोषणाओं और पत्रों के मसविदे तैयार करना, सुल्तान के फरमानों को जारी करना तथा सुल्तान के कार्यों का विवरण लिखना इसका प्रमुख कार्य होता था. इसका कार्य गुप्त प्रकृति के होने के कारण इस विभाग का पदाधिकारी सुल्तान का अत्यधिक विश्वासपात्र होता था.
(5) सद्र- उस - सुदूर – यह धर्म विभाग एवं दान - विभाग का अध्यक्ष होता था. मस्जिदों, मजारों, मकबरों, खानकाहों, मदरसों, मकतबों आदि के निर्माण एवं उनकी रक्षा के लिए यही उत्तरदायी होता था.
(6) काजी-उल-कुजात — यह न्याय विभाग का अध्यक्ष उसे होता था और प्रायः जो व्यक्ति सद्र-उस-सुदूर होता था, ही यह विभाग भी सौंप दिया जाता था. यह साम्राज्य की समस्त न्यायिक व्यवस्था पर नियन्त्रण रखता था तथा न्यायिक मामलों को निबटाने में सुल्तान की सहायता करता था.
(7) अन्य विभाग एवं पदाधिकारी – इन प्रमुख विभागों के अतिरिक्त सुल्तान के अधीन अन्य पदाधिकारी भी थे उसके विभिन्न कार्यों के लिए उत्तरदायी थे. इनमें 'वकील-एदर' शाही महल की देखभाल के अतिरिक्त सुल्तान की व्यक्तिगत सेवा की देखभाल किया करता था. 'अमीर-एहाजिब' (बारबक) राजदरबार में अनुशासन बनाए रखता था. 'सरजांदार', सुल्तान के व्यक्तिगत अंगरक्षकों का मुखिया था. अमीर-ए-अखुर शाही अश्वशाला का प्रधान एवं शाहना-एपील-हस्तिशाला का प्रधान होते थे.
इन सबके अतिरिक्त सुल्तान बड़ी संख्या में गुलामों को भी रखता था, जो उसकी व्यक्तिगत सेवा करते थे.
सल्तनतकालीन शासन व्यवस्था की मुख्य विशेषता यह रही कि, इसने थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ प्राचीन व्यवस्था को ही लागू किया. इसी कारण समूचे भारत में आसानी से तुर्की शासन व्यवस्था लागू हो गई हालांकि उसमें विघटन के अनेक गुण मौजूद थे.
> सल्तनतकालीन प्रान्तीय व स्थानीय प्रशासन
प्रशासन की सुविधा के लिए दिल्ली सल्तनत को अनेक विभागों में बाँटा गया था. इन प्रान्तों का शासन संचालन सुल्तान द्वारा नियुक्त सूबेदार या गर्वनर किया करते थे, लेकिन प्रान्तों के विभाजन में एकरूपता का अभाव था. डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि, " सल्तनत कभी भी एक से प्रान्तों में विभक्त नहीं थी और नहीं उन सबकी शासन व्यवस्था एकसमान थी. "
दिल्ली सल्तनत में प्रान्तों अथवा सूबों की संख्या 20 से 25 तक होती थी. 13वीं सदी में दिल्ली सल्तनत को अनेक सैनिकक्षेत्रों में विभाजित किया गया था, जिसे उस समय ‘इक्ता' कहा जाता था. इक्ता का प्रधान अधिकारी 'मुक्ता' या 'वली' कहलाता था, लेकिन जब बाद में सल्तनत का विस्तार हुआ तब प्रान्त बनाए गए. सूबेदारों तथा इक्तादारों या मुक्ताओं की नियुक्ति उनकी योग्यता के आधार पर सुल्तान द्वारा की जाती थी.
इनका प्रमुख कार्य अपने प्रान्तों में शासन व्यवस्था के साथ शान्ति बनाए रखना, विद्रोहों का दमन करना, करों की वसूली करना तथा न्यायिक प्रशासन करना था. केन्द्र में सुल्तान की सहायता के लिए इन्हें सदैव सैनिक सेवा के लिए तैयार रहना पड़ता था.
सूबेदार या मुक्ता अपने कार्यों में सहायता के लिए अनेक अधिकारियों की नियुक्ति करता था, जिसने मुख्य रूप से ‘नाजिर’ एवं ‘वकूफ' प्रमुख थे. ये राजस्व वसूल करते थे. इनके अतिरिक्त प्रान्तीय शासन में साहिब-ए-दीवान का एक महत्वपूर्ण पद होता था जिसकी नियुक्ति केन्द्रीय वजीर की सिफारिश पर सुल्तान करता था. यह राज्य की आय का ब्यौरा रखता था तथा उसके सम्बन्ध में सुल्तान के पास विस्तृत ब्यौरा भेजा करता था. डॉ. आई. एच. कुरैशी के अनुसार, वह सुल्तान के प्रति उत्तरदायी था. प्रान्तों में केन्द्रीय प्रशासन की तरह ही काजी एवं कुछ अन्य पदाधिकारी होते थे.
> स्थानीय प्रशासन
14वीं सदी में दिल्ली सल्तनत का विस्तार अधिक हो जाने के कारण इक्ते से छोटी प्रशासनिक इकाई 'शिक' (जिला) का निर्माण किया गया जिसका अध्यक्ष 'शिकदार' कहलाता था. यह एक सैनिक पदाधिकारी था जिसका कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में शांन्ति व्यवस्था को बनाए रखना था.
कुछ समय बाद शिक से भी छोटी इकाई 'परगना' का गठन किया गया जो कई गाँवों को मिलाकर बनाया जाता इब्नबतूता सौ गाँवों के मण्डल को 'सादी' कहता है. प्रत्येक परगने में एक चौधरी एवं एक राजस्व वसूल करने वाला अधिकारी होता था.
शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसकी शासनव्यवस्था देशी थी. इसमें आपसी झगड़ों का निपटारा करने के लिए पंचायतों का गठन किया गया था. गाँव के लोग प्रजा की तरह एकत्र होते, अपने मामलों की देखभाल करते और सुरक्षा, चौकीदारी, प्राथमिक शिक्षा तथा सफाई का प्रबन्ध करते थे. प्रत्येक गाँव में आज की ही तरह एक चौकीदार, एक लगान वसूल करने वाला तथा एक पटवारी होता था.
इस प्रकार उपर्युक्त विघ्नेचन से स्पष्ट है कि, तुर्की सल्तनत के कारण ग्रामीण प्रशासन अपने पूर्व रूप में चलता रहा और उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया.
> दिल्ली सल्तनत : न्याय व्यवस्था
दिल्ली सल्तनत का स्वरूप यद्यपि सैनिक था, परन्तु न्याय प्रशासन को अत्यधिक महत्व दिया गया था. न्यायव्यवस्था की रूपरेखा इस समय बड़ी सरल थी. धार्मिक मामलों को दीवानी और फौजदारी मामलों से अलग रखा जाता था. दीवानी और फौजदारी के मामलों में सुल्तान अकेला या अपीलीय न्यायधीश के रूप में सुनवाई कर सकता था. वह न्याय विभाग का सर्वोच्च न्यायधीश था तथा प्रायः न्याय करने में मुफ्तियों का सहयोग लिया करता था.
सुल्तान के बाद 'काजी-उल-कुजात' का पद न्यायव्यवस्था में सर्वोच्च था. इसका कार्यालय ही साम्राज्य का प्रमुख न्यायालय होता था, लेकिन 1248 ई. में सद्र-ए-जहाँ के पद के निर्माण के साथ ही काजी-उल-कुजात अपनी उच्च स्थिति को खो बैठा और सद्र-ए-जहाँ न्यायपालिका का अध्यक्ष बन गया.
सद्र-ए-जहाँ काजियों का चयन करता था. इसका मुख्य कार्य धार्मिक मामलों का निरीक्षण था, इसलिए काजी-उलकुजात न्याय का कार्य करता था. काजी-उल-कुजात की सहायता के लिए एक या दो काजी होते थे. यह दीवानी और फौजदारी सभी मामलों का निपटारा करता था और प्रान्तीय काजीयों एवं सूबेदारों के न्यायालयों की अपीलें सुनता था. काजी-उल-कुजात अपने न्यायिक कार्यों के अतिरिक्त सुल्तान के 'राज्यारोहण के समय उसे शपथ दिलाता था तथा साम्राज्य के नियमों तथा उपनियमों के निर्माण में उसकी सहायता करता था.
मुकदमों की सुनवाई और विचार-विमर्श में मुफ्तियों की भूमिका महत्वपूर्ण थी. वे कानून की जो व्याख्या करते थे उसे न्यायधीश को स्वीकार करना पड़ता था तथा मतभेद होने की स्थिति में मामला सुल्तान को सौंपा जाता था.
न्याय-प्रशासन से जुड़ा ‘मुहतसिब' का कार्यालय होता था, जो एक तरह से पुलिस के मुखिया के समान था. यह लोगों के सार्वजनिक रूप से नैतिक आचरण को देखता था.
प्रान्तों की न्याय व्यवस्था में 4 प्रकार के न्यायालय थे -
(1) सूबेदार या गर्वनर का न्यायालय,
(2) काजी - ए- सूबा का न्यायालय,
(3) दीवान-ए-सूबा का न्यायालय एवं
(4) सद्र-ए-सूबा का न्यायालय.
प्रान्त में सूबेदार का न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान था, क्योंकि वह सूबे में सुल्तान का प्रतिनिधि होता था. वह अपने प्रारम्भिक मुकदमों में अकेले बैठता था, लेकिन अपीलीय मुकदमों में काजी-ए-सूबा की मदद लेता था.
गर्वनर के बाद प्रान्त में 'काजी - ए-सूबा' का न्यायालय द्वितीय स्थान पर था जो न्याय करने का अधिकांश भार वहन करता था. इसकी नियुक्ति सुल्तान द्वारा ‘काजी-उल-कुजात' की सिफारिश पर की जाती थी. यह दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के मुकदमे सुनता था.
भू-राजस्व सम्बन्धी मामलों में न्याय व्यवस्था का प्रधान अधिकारी 'दीवान-ए-सूबा' था, जिसके निर्णयों के विरुद्ध सूबेदार या सुल्तान के पास अपील की जा सकती थी. स्थानीय स्तर पर काजी, फौजदार, आमिल, कोतवाल आदि न्याय का कार्य करते थे.
> दिल्ली सल्तनत : सैन्य व्यवस्था
दिल्ली सल्तनत सैनिक शक्ति पर आधारित थी अतः बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे योग्य सुल्तानों ने सल्तनत को मजबूती प्रदान करने के लिए एक कुशल सैन्य संगठन की स्थापना की.
सल्तनत युग में अधिकांशतः सेना के चार भाग होते थे; यथा-
1. नियमबद्ध सैनिक जो स्थायी रूप से सुल्तान की सेना के लिए भर्ती किए जाते थे.
2. वे सैनिक जो प्रान्तीय सूबेदारों और अमीरों की सेवा के लिए स्थानीय रूप से भर्ती किए जाते थे.
3. वे सैनिक जो केवल युद्ध के समय ही भर्ती होते थे.
4. मुसलमान स्वयंसेवक जो जिहाद अथवा धर्म युद्ध करने के लिए सेना में भर्ती होते थे.
राजधानी में स्थित सुल्तान की सेना 'हश्म-ए-कल्ब' कहलाती थी, इसमें दो प्रकार के सैनिक होते थे— (1) स्वयं सुल्तान व (2) दिल्ली में रहने वाले दरबारियों, मन्त्रियों एवं अन्य पदाधिकारियों के ये सैनिक सदैव राजधानी में रहते थे, परन्तु इन्हें स्थायी सेना नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि इनकी संख्या बहुत कम थी.
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी ही ऐसा प्रथम सुल्तान था जिसने एक विशाल स्थायी सेना का गठन किया था जिसकी भर्ती सीधे केन्द्रीय सरकार करती थी.
फिरोज तुगलक ने सेना के संगठन को सामन्ती रूप दिया तथा लोदियों की सेना कबीले के रूप में विभाजित थी. उसमें लोदी, करमाली, लोहानी, सूर आदि कबीलों के लोग थे.
युद्ध के समय प्रान्तों के सूबेदारों एवं अमीरों की सेनाएँ दीवान-ए-आरिज के अधीन होती थीं. प्रान्तीय सेना के वेतन, अनुशासन व उसके संगठन का भार सूबेदार के ऊपर ही उसमें तुर्क, होता था. सल्तनत सेना का रूप राष्ट्रीय नहीं था. अफगान, ताजिम, ईरानी, मंगोल, हिन्दू आदि सभी वर्गों के लोग थे, जो धन के लोभ में लड़ते थे. उनमें एकता बनाए रखने का एकमात्र सूत्र सुल्तान का व्यक्तित्व ही था.
सेना के मुख्य रूप से 3 प्रमुख अंग थे; यथा—
(1) पैदल, जिसमें अधिकांश धनुर्धर थे
(2) घुड़सवार तथा
(3) हाथी.
सबसे अधिक महत्व घुड़सवार सेना का था. प्रत्येक सवार के पास दो तलवारें एक भाला और धुनषबाण होता था. सैनिक कवच पहनते थे और घोड़ों को भी फौलादी बखतर पहनाये जाते थे. अश्वारोही मूलरूप से 3 भागों में बाँटे जाते थे.
(1) मुरतव – दो घोड़ों वाला सैनिक.
(2) सवार – एक घोड़े वाला सैनिक.
(3) दो अस्पा – जिसके पास एक घोड़ा फालतू होता था. सुल्तान हाथियों पर बहुत अधिक विश्वास करते थे तथा हाथी रखना सुल्तान का विशेषाधिकार माना जाता था.
सेना में तोपखाना भी होता था, लेकिन यह आधुनिक ढंग से संगठित नहीं था केवल बारूद की सहायता से गोले फैंकने की व्यवस्था थी. युद्ध के समय सेना के साथ एक विशिष्ट विभाग होता था जो राजधानी में सूचनाएँ भेजता था.
सैन्य विभाग का प्रधान 'आरिज-ए-मुमालिक' कहलाता था तथा प्रान्तों में भी इसी के समान 'आरिज' होते थे. इनका कार्य सेना का संगठन, संचालन, अनुशासन, नियन्त्रण आदि करना होता था.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, सल्तनत काल में सैन्य संगठन पर पर्याप्त ध्यान दिया गया था, परन्तु उसमें अनेक अवगुण भी थे जो आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के विघटन के कारण बने.
> राजस्व व्यवस्था : दिल्ली सल्तनत
दिल्ली सल्तनत में राज्य के विस्तार के साथ ही आमदनी बढ़ाने के उपाय किए गए. इस काल में राज्य की आय के दो मुख्य स्रोत थे -
(1) धार्मिक कर, व (2) सामान्य कर.
(1) धार्मिक कर – धार्मिक करों में प्रमुख कर 'जकात' एवं ‘जजिया’ थे. ‘जकात’ केवल धनी मुसलमानों से लिया जाता था जो उनकी आय का 2½ % होता था. इससे प्राप्त होने वाली आमदनी से गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए कार्य किए जाते थे. 'जजिया' गैर-मुसलमानों से लिया जाने वाला कर था. सामान्यतः ब्राह्मणों, साधु-संन्यासियों, अपाहिजों, बच्चों और स्त्रियों से यह कर नहीं लिया जाता था, परन्तु फिरोज तुगलक ने ब्राह्मणों को भी यह कर देने के लिए बाध्य कर दिया.
(2) सामान्य कर — इस प्रकार के करों में सबसे प्रमुख कर ‘भूमि कर’ था. राज्य के पदाधिकारियों की जमीन, दान में दी गई जमीन, खालसा भूमि तथा अधीनस्थ हिन्दू राजाओं की भूमि, ये कुल चार प्रकार की राज्य की भूमि होती थी.
गैर-मुसलमानों के पास जो भूमि होती थी उनसे 'खराज' नामक कर वसूला जाता था. यह उपज का 1/2 भाग या 1/3 भाग होता है. मुसलमान भूमि कर के रूप में 'उश्र' देते थे. यह उपजे का 1/5 या 1 / 10 भाग होता था. सामान्यतः दान में दी गई भूमि पर कर नहीं लगाया जाता था, परन्तु अलाउद्दीन ने सभी प्रकार के दान में दी गई भूमि को खालसा ( राजकीय भूमि) में परिवर्तित कर दिया. लगान नकद या अनाज के रूप में वसूला जाता था. सल्तनत काल में लगान की राशि तय करने के लिए मुख्य रूप से दो प्रथाएँ थीं. यथा—(1) बटाई, व (2) मसाअत.
बटाई में राज्य किसानों से फसल का बँटवारा कर लेता था. बटाई के अनेक प्रकार थे; जैसे-
(1) खेत बटाई – खड़ी फसल का बँटवारा.
(2) लंक बटाई – खलिहान में लाए गए अनाज का बँटवारा.
(3) रास बटाई — खलिहान में तैयार अनाज का बँटवारा ‘मसाअत’ के अनुसार, जमीन की पैमाइश के आधार पर उपज का अन्दाज लगाकर लगान की राशि तय की जाती थी. गयासुद्दीन तुगलक ने किसानों से सीधा लगान वसूलने के स्थान पर ‘अक्ता' तथा 'विलायत' के आधार पर लगान की राशि तय की.
राज्य की आय का एक अन्य साधन 'खुम्स' था, जोकि युद्ध में लूट का माल था. राज्य लूट के माल में से केवल 1 / 5 भाग ही लेता था तथा शेष 4/5 भाग सैनिकों को बाँट दिया जाता था.
राज्य को अन्य साधनों; जैसे – लावारिंस सम्पत्ति, नजराना और भेंट तथा आर्थिक जुर्मानों से भी राज्य की अच्छी आमदनी होती थी.
राजस्व विभाग का प्रधान 'दीवान-ए-वजारत' होता था खूत, तथा लगान वसूली का कार्य आमिल, पटवारी, चौधरी, मुकद्दम, कानूनगो आदि के जिम्में था. सरकार उपज को बढ़ाने एवं उपज के अनुसार कर लगाने के लिए प्रयास करती थी. दिल्ली के अनेक सुल्तानों ने कृषि व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रयास किए जमीन की नाप कराई गई, सिंचाई की व्यवस्था की गई और किसानों की सहायता की गई. फलतः राज्य को पर्याप्त मात्रा में भू-राजस्व प्राप्त होता था, किन्तु इसका बड़ा भाग राजस्व अधिकारी ले लेते थे. भूमिकर के अतिरिक्त राज्य अन्य विभिन्न प्रकार के कर लगाता था; जैसे – सिंचाई कर, गृहकर, चरागाह कर, व्यापार एवं उद्योग कर आदि.