परवर्ती उत्तर वैदिक काल के समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म तथा राजनैतिक व्यवस्था | भारतीय इतिहास में क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया | मानव की उत्पत्ति एवं मानव सभ्यता के विकास | इतिहास

प्रश्न - परवर्ती उत्तर वैदिक काल के समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म तथा राजनैतिक व्यवस्था का मूल्यांकन कीजिए. उत्तर वैदिक काल किस प्रकार से प्रारम्भिक वैदिक काल से भिन्न था ?
उत्तर - 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. के मध्य में वैदिक कबीले 'सप्त सैन्धव' क्षेत्र में गंगा की ऊपरी घाटी तथा उसके आसपास के क्षेत्र में फैल गए थे. क्षेत्रीय परिवर्तन के इस काल में आर्यों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक व्यवस्था में कई परिवर्तन आये.
समाज
समाज की रचना असमानता पर आधारित थी. हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चार वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति ब्रह्माण्ड के रचयिता प्रजापिता ब्रह्मा के शरीर से हुई.
इन स्रोतों में प्रतीकात्मक रूप से यह दिखाया गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समाज के अंग हैं. हालांकि यह अंग समान स्तर के नहीं हैं. ब्राह्मण की तुलना सिर या मुख से की गई है, जबकि शूद्र की तुलना पाँव से. ब्राह्मण सर्वोच्च समझे गये, क्योंकि ऐसा माना गया कि समाज देवताओं से सम्पर्क केवल उनके द्वारा ही स्थापित कर सकता था, जबकि शूद्र निम्न कार्य करता था और इस श्रेणी में वह दास भी रखे गये जो युद्ध में पकड़े जाते थे.
वर्ण की अवधारणा
वर्ण की अवधारणा की निम्नलिखित विशेषताएं हैं –
(1) जन्म के आधार पर सामाजिक स्तर.
(2) वर्गों का श्रेणीबद्ध तरीके से गठन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) जिसमें ब्राह्मण समाज में सबसे उच्च और शूद्र सबसे निम्न स्थान पर थे.
(3) सगोत्र विवाह एवं अनुष्ठानों की पवित्रता के नियम.
वर्ण व्यवस्था को आगे धर्म से या सार्वभौमिक नियम की अवधारणा से प्रतिबद्ध किया गया है और वर्ण धर्म की स्थापना सामाजिक नियम रूप में इसलिए की गई, जिससे कि समाज को व्यवस्थित ढंग से चलाया जा सके, लेकिन उत्तर वैदिक समाज में वर्ण धर्म का पूर्णतः विकास नहीं हो पाया था.
वैदिक काल के बाद के काल में भी वर्ण धर्म प्रत्येक समूह के आनुष्ठानिक महत्व मात्र की ओर संकेत करता था. वर्ण व्यवस्था में गैर क्षत्रिय लोग भी क्षत्रिय हो सकते थे.
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को व्यावहारिक स्तर पर वैदिक काल के बाद भी कठोरता के साथ कभी भी लागू नहीं किया जा सका.
ऐसा समझा जाता था कि उत्तर वैदिक काल में भौगोलिक केन्द्र परिवर्तन के साथ वैदिक लोगों का सामना बहुत से गैर वैदिक कबीलों के साथ हुआ. इनके साथ लम्बे आदान-प्रदान के बाद एक मिला-जुला समाज अस्तित्व में आया. कम-से-कम अथर्ववेद में कई गैर वैदिक धार्मिक परम्पराओं का चित्रण है, जिसे पुरोहितों द्वारा स्वीकार किया गया था. यहाँ पर विवाह के कठोर नियमों को लागू करने का उद्देश्य सगोत्र विवाह के द्वारा कबीले की पवित्रता को बनाये रखना था. क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों का महत्व समाज में बढ़ जाने के कारण उनके लिए यह अनिवार्य हो गया कि अन्य लोगों की तुलना में वे स्पष्टतः अपनी सर्वोच्चता कायम रखें. उत्तर वैदिक काल में फिर भी वर्णों की अवधारणा अपनी प्रकृति में बनावटी थी. उदाहरणतः अस्पृश्यता की अवधारणा अनुपस्थित थी.
गोत्र
इस समय में गोत्र संस्था का भी उदय हुआ. कबीलाई सगोत्र विवाह (कबीले के अन्दर विवाह) के विरुद्ध लोग असगोत्रीय विवाह (कबीले के बाहर विवाह) करते थे. गोत्र ने एक समान पूर्वज के वंशक्रम को महत्व दिया और इसी कारण एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों का आपस में विवाह नहीं होता था.
परिवार
इस काल में पितृसत्तात्मक परिवार अच्छी प्रकार से स्थापित था और गृहपति को एक विशेष स्थान प्राप्त था. घरेलू अर्थव्यवस्था के विशिष्टता प्राप्त कर लेने से गृहपति की स्थिति महत्वपूर्ण हो गयी. भूमि पर स्वामित्व का अधिकार परम्परागत प्रयोग के आधार पर था तथा भूमि के सामुदायिक स्वामित्व को भी सुरक्षित रखा गया. गृहपंति धनी थे और अनुष्ठान में उनका मुख्य कार्य यजमान का था. उन्होंने धन उपहारों के द्वारा प्राप्त नहीं किया था, परन्तु इन्होंने इसको अपने विशेष प्रयासों से उत्पादित किया. यज्ञों का सम्पन्न कराना उनका कार्य था जिससे कि उनको विशेष दर्जा मिलता और उनके धन में से कुछ भाग ब्राह्मणों को भी जाता था. कुछ महिलाओं को दार्शनिक का दर्जा प्राप्त हुआ था तथा रानियाँ राजतिलक के अनुष्ठानों के अवसर पर पुरुषों के साथ उपस्थित रहती थीं फिर भी महिलाओं को पुरुषों का सहायक ही समझा जाता और नीति निर्धारण में उनका कोई योगदान नहीं होता था.
जीवन के तीन आधार
तीन आश्रम, अर्थात् जीवन को तीन भागों में विभाजित किया गया. यह निम्न प्रकार थे –
ब्रह्मचर्य (विद्यार्थी जीवन), गृहस्थाश्रम ( घरेलू जीवन), वानप्रस्थाश्रम (घरेलू जीवन का परित्याग करके वन में निवास करना), संभवतः चतुर्थ, संन्यास आश्रम ( अनिवार्य रूप से सांसारिक जीवन को छोड़ देना) था, जिसके विषय में उपनिषदों के समय तक कोई जानकारी नहीं मिलती. उत्तर वैदिक काल में संन्यासी या तपस्वी व्यक्तिगत स्तर पर होते थे, परन्तु इन्होंने वैदिक काल के बाद की सामाजिक व्यवस्था का सक्रिय या निष्क्रिय तरीके से विरोध किया था.
अर्थव्यवस्था
गंगा, यमुना, दोआब एवं मध्य गंगा घाटी में उर्वरक भूमि के विशाल मैदानों की उपलब्धता से उत्तर वैदिक काल में कृषि का विकास सम्भव हुआ तथा इस क्षेत्र में प्रथम शताब्दी ई. में, धीरे-धीरे स्थायित्व कायम हो सका. उत्तरपू. वैदिक साहित्य में ऐसे संकेत मिलते हैं कि पशुपालन का महत्व बना रहा. इसी के साथ-साथ कृषि पर आधारित स्थायी जीवन प्रणाली का भी प्रारम्भ हो चुका था. दोनों तरह के साहित्यिक व पुरातात्विक स्रोत यह बताते हैं कि लोग खाने में चावल का प्रयोग करने लगे थे. चित्रित मृद्भाण्ड तथा बांस संस्कृति के खुदाई किये गये स्थलों से चावल के काले पड़े हुए दाने मिले हैं. वैदिक साहित्य में चावल के लिए ब्रीही, तन्दूल तथा सलि जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, यह लगता है कि इस समय फसल चक्र का प्रयोग होने लगा था तथा जौ व चावल की खेती की जाने लगी थी. इस काल में खेती की अच्छी पैदावार तथा आर्थिक सम्पन्नता के लिए राजसूय यज्ञ में दूध, घी व पशुओं के साथ-साथ अनाज भी चढ़ाया जाने लगा. अथर्ववेद में ऐसी 12 बलियों का वर्णन है, जिससे कि भौतिक लाभ की प्राप्ति होती थी तथा इसी के साथ ब्राह्मणों को गाय, बछड़े, साँड़, सोना, पके चावल, छप्पर वाले घर तथा अच्छी पैदावार देने वाले खेतों को उपहार के रूप में दिया जाने लगा था. उपहार में दी जाने वाली ये वस्तुएं इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि कृषि तथा कृषि पर आधारित स्थायी जीवन का महत्व बढ़ रहा था. उत्तर वैदिक काल के साहित्य में वर्णन है कि 8, 12 व 20 बैल तक हल को जोतते थे. यहाँ पर बैलों की संख्या का वर्णन प्रतीक के रूप में हुआ है, परन्तु इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि खेती करने के लिए हल बैल का प्रयोग खूब होने लगा था.
प्रश्न – भारतीय इतिहास में क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए.
उत्तर - भारतीय उपमहाद्वीप कई क्षेत्रों से मिलकर बना है और प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशेषताएँ हैं. देश के ऐतिहासिक उद्भव की प्रक्रिया में क्षेत्रों ने विशेष सांस्कृतिक विशिष्टताएं ग्रहण की तथा कई आधारों पर, जैसे- समान ऐतिहासिक म्परा, भाषा, सामाजिक संगठन, कलाएं आदि. हम एक क्षेत्र से दूसरे की भिन्नताओं को इंगित कर सकते हैं. इस प्रकार भारतीय इतिहास में समान सामाजिक तथा सांस्कृतिक रीतियों एवं संस्थाओं तथा साथ ही क्षेत्रीय विशिष्टताओं की संरचना के स्थायित्व की दोहरी प्रक्रिया देखने को मिलती है.
यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इतिहास में क्षेत्रों के उदय की प्रक्रिया का स्वरूप असमान रहा है, अतः वर्तमान की भाँति भूत में भी विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया में काफी असमानताएं रही हैं. यद्यपि कोई भी क्षेत्र कभी भी पूरी तरह से कटा हुआ नहीं रहा है. स्थान एवं काल के आधार पर भारतीय समाज के उद्भव के विभिन्न चरणों में भिन्नता को समझने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का गठन करने वाले क्षेत्रों के स्वरूप की जानकारी अत्यावश्यक है.
क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताएं
क्षेत्रीय परिवर्तन के कारण–क्षेत्रों तथा क्षेत्रीय संस्कृतियों के बीच विभिन्नताओं के चिह्न सम्भवतः खाद्य उत्पादन के रूप में जीवनयापन के नए साधन की शुरूआत के साथ ढूँढ़े जा सकते हैं. उपमहाद्वीप की मुख्य नदियों के क्षेत्रों में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की शुरूआत मात्र एक घटनाएँ नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया थी, जो कई सहस्राब्दियों में फैली हुई थी. कच्ची मैदान (जोकि अब पाकिस्तान में है) के अन्तर्गत मेहरगढ़ में कृषिगत गतिविधियाँ जल्दी अपेक्षाकृत लगभग 6000 ईसा पूर्व से पहले ही आरम्भ हो गयी थीं तथा सिन्धु घाटी में तीसरी-चौथी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में, गंगा की घाटी में कोलडीहवा ( उत्तर प्रदेश) में 5000 ईसा पूर्व में, चिराँद (बिहार) में तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध तथा अतरंजीखेड़ा (दोआब) में दूसरी सहस्राब्दि ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में कृषि की शुरूआत हुई, तथापि गंगा घाटी में पूर्ण रूप से नियोजित कृषि, खेतिहर गाँव तथा अन्य सम्बद्ध लक्षण, जैसे-नगर का उदय, व्यापार तथा राज्य प्रणाली आदि प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में ही दिखायी देते हैं. मध्य एवं प्रायद्वीपीय भारत में ऐसे कई स्थान थे, जहाँ बदलाव की प्रक्रिया प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व की अंतिम शताब्दी में ही आरम्भ हो सकी. इसी प्रकार गंगा, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी के क्षेत्रों में कृषक समुदाय तेजी से फैलता रहा और सभ्यता के चरणों की विभिन्न प्रक्रियाओं को तेजी से तय करता रहा, जबकि असम, बंगाल, गुजरात, उड़ीसा तथा मध्य भारत के काफी क्षेत्र जोकि बाकी क्षेत्रों से अपेक्षाकृत अथवा पूर्णतया कटे हुए थे. काफी लम्बे समय तक इन विकासों से अछूते रहे तथा आदिम अर्थव्यवस्था के चरण से आगे नहीं बढ़ पाए थे. अन्ततः जब कुछ अपेक्षाकृत कटे हुए क्षेत्रों में बदलाव की प्रक्रिया का ऐतिहासिक दौर शुरू हुआ, तो अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा इन विकासों के बीच न केवल समय का लम्बा अन्तराल था, बल्कि क्षेत्रों के गठन के स्वरूप में भी स्पष्ट अन्तर था. पूर्व विकसित क्षेत्रों के मुख्य केन्द्रों का सांस्कृतिक प्रभाव इन कटे हुए क्षेत्रों के विकास की प्रक्रिया पर प्रारम्भ से ही पड़ा. अतः आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक तेजी से विकसित हुए तथा अभी भी कुछ क्षेत्र हैं, जो अन्य की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं.
ऐतिहासिक क्षेत्रों के उदय की असमान प्रक्रियाएं
अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक विकास की असमान प्रक्रिया तथा ऐतिहासिक शक्तियों का असमान विन्यास भूगोल से अत्यधिक प्रभावित रहा. क्षेत्रों के असामान्य विकास को ऐतिहासिक स्थितियों द्वारा दर्शाया जा सकता है, उदाहरण के लिए, तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में गुजरात में में मध्य पाषाणयुगीन संस्कृति मौजूद थी. ध्यान देने योग्य तथ्य जैसी विकसित सभ्यता विद्यमान थी. फलतः विकास के यह है कि अन्य क्षेत्रों के इन संस्कृतियों के युग में ही हड़प्पा विभिन्न चरणों में क्षेत्रों एवं संस्कृतियों के एक-दूसरे से प्रभावित होने के प्रमाण मिलते हैं. यह प्रक्रिया भारतीय इतिहास के हर दौर में दिखायी देती है. दूसरे शब्दों में, जहाँ तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में बसने लगे थे वहीं दूसरी ओर एक ओर सिन्धु एवं सरस्वती के क्षेत्रों में घुमक्कड़ लोग दक्कन, आंध्र, तमिलनाडु, उड़ीसा एवं गुजरात में बड़े पैमाने जोकि प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व का उत्तरार्द्ध अनुमानित पर खेतिहर समुदाय बुनियादी रूप में लौह युग में गठित हुए, किया जा सकता है.
लोहे के प्रादुर्भाव के साथ ही स्थायी कृषिगत गतिविधि पर आधारित भौतिक संस्कृति का प्रसार आरम्भ हुआ. तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में आरम्भ से गांगेय उत्तरी भारत तथा मध्य भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों की भौतिक संस्कृति में काफी कुछ समानता दिखायी देती है. यद्यपि अशोक के शिलालेखों के भौगोलिक वितरण जोकि उत्तर से दक्षिण तक मिलते हैं, के कारण पूरे उपमहाद्वीप में कुछ हद तक सांस्कृतिक समानता स्वीकार की जाती है. विंध्याचल के दक्षिण के क्षेत्रों में जटिल सामाजिक संरचना वाले आरम्भिक ऐतिहासिक युग के उदय की प्रक्रिया मौर्य युग में तथा उसके उपरान्त तेज हुई.
वास्तव में उत्तर मौर्य युग दक्षिण भारत तथा दक्कन के अधिकतर क्षेत्रों की संस्कृति के विकास का आरम्भिक चरण था. इन क्षेत्रों की ऐतिहासिक बस्तियों की खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक आँकड़ों से इस तर्क को बल मिलता है. यहाँ यह बताना आवश्यक है कि बीच के काफी क्षेत्र अथवा मध्य भारत की जंगली पहाड़ियाँ कभी भी पूरी तरह नहीं बसीं और आदिमयुगीन अर्थव्यवस्था के विभिन्न चरणों में आदिवासियों को शेष मानव समाज से अलग रहने का अवसर देती रहीं. इस उपमहाद्वीप में सभ्यता तथा पारम्परिक सामाजिक संगठन के रूप में अधिक जटिल संस्कृति विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न कालों में पहुँची तथा अपेक्षाकृत अधिक विकसित भौतिक संस्कृति का क्षेत्रीय प्रसार काफी असमान रहा.
अपने अनश्वर गुण के कारण मृद्भाण्ड किसी संस्कृति की पहचान का विश्वसनीय चिह्न होते हैं तथा पुरातात्विक श्रेणीबद्धता का महत्वपूर्ण साधन होते हैं. विभिन्न संस्कृतियाँ अपने विशिष्ट मृद्भाण्ड के आधार पर पहचानी जाती हैं. गेरू चित्रित मृद्भाण्ड जोकि 1000 ईसा पूर्व से पहले के हैं, चित्रित भूरे मृद्भाण्ड जो 800-400 ईसा पूर्व के बीच के हैं, काले एवं लाल मृद्भाण्ड जोकि 500-100 ईसा पूर्व के हैं. मृद्भाण्ड की प्रथम तीन श्रेणियाँ मुख्यतः भारत-गांगेय विभाजन तथा दोआब सहित ऊपरी गंगा घाटी में मिलते हैं. काली पॉलिश वाले मृद्भाण्ड उत्तरी मैदान से आरम्भ होकर मौर्यकाल के दौरान मध्य भारत तथा दक्कन तक फैल गए.
विभिन्न प्रकार के मृद्भाण्डों के वितरण से हमें संस्कृतियों की सीमाओं तथा उनके विस्तार के चरण के विषय में जानकारी प्राप्त होती है - भारत-गांगेय विभाजन तथा ऊपरी गंगा क्षेत्र में एक नई संस्कृति का उदय सर्वप्रथम दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में हुआ, जोकि धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैली, जो मौर्यकाल में सम्भवतः मुख्य गांगेय क्षेत्र से भी आगे बढ़ गई.
प्राचीन भारतीय साहित्य से हमें सांस्कृतिक स्वरूप के भौगोलिक प्रसार के प्रमाण भी मिलते हैं. ऋग्वैदिक काल का भौगोलिक केन्द्र बिन्दु सप्तसिन्धु (सिन्धु तथा इसकी सहायक नदियों की भूमि) तथा भारत-गांगेय विभाजन था. उत्तरवैदिक काल में दोआब ने यह स्थान ले लिया तथा बुद्ध के युग में मध्य गांगेय घाटी (कौशल एवं मगध) को यह गौरव प्राप्त रहा. यहाँ यह कह देना उपयुक्त होगा कि भौतिक संस्कृति के विकास के साथ ही भौगोलिक विस्तार के चरणों का विकास होता रहा. राज्य सीमा के अर्थों में राष्ट्र शब्द का प्रयोग उत्तर - वैदिक काल में आरम्भ हुआ और इसी काल में कुरू और पांचाल जैसे क्षेत्रों में छोटे-छोटे राजवंशों एवं राज्यों का उदय हुआ. बुद्ध के युग में (छठवीं शती ईसा पूर्व ) सोलह महाजनपदों (बड़े क्षेत्रीय राज्य) का उदय हुआ. यहाँ रुचिकर तथ्य यह है कि उत्तर-पश्चिम में गांधार, मालवा में अवन्ति तथा दक्कन में अस्सक को छोड़कर अधिकतर महाजनपद ऊपरी एवं मध्य गांगेय घाटी में स्थित थे. कलिंग ( प्राचीन तटवर्ती उड़ीसा) आन्ध्र, बंग (प्राचीन बंगाल), राजस्थान एवं गुजरात जैसे क्षेत्रों को इस युग पर प्रकाश डालने वाले साहित्य में स्थान नहीं मिला, जिसका अर्थ यह है कि इन राज्यों का तब तक ऐतिहासिक रंग मंच पर प्रादुर्भाव नहीं हुआ था.
विन्ध्याचल के दक्षिणी राज्यों, जैसे- कलिंग का उल्लेख सर्वप्रथम पाणिनि ने पाँचवीं शती ईसा पूर्व में किया, सुदूर दक्षिण में तमिल भू-भाग का ऐतिहासिक काल में प्रवेश तक नहीं हुआ था. अतः विभिन्न क्षेत्रों का उदय और गठन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया थी, अतः आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों की तकनीकी एवं सामाजिक-आर्थिक विकास का यह अन्तर बाद में पनपने वाली सांस्कृतिक विभिन्नता के मूल में रहा.
प्रश्न - मानव की उत्पत्ति एवं मानव सभ्यता के विकास के चरणों की विवेचना कीजिए.
उत्तर - सबसे पहले मानव की उत्पत्ति पृथ्वी पर कब हुई, इसके लिए कोई पुख्ता प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे सुनिश्चित किया जा सके कि मानव कब, कहाँ और कैसे पैदा हुआ? आज भी यह एक अबूझ पहेली बना हुआ है. अतएव मानव की उत्पत्ति के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाले विद्वानों का भी विषयगत वर्गीकरण हो गया है- (i) धार्मिक विद्वान्, (ii) मानव विज्ञानी, (iii) भू-विज्ञानी, (iv) जीव विज्ञानी. इसमें धार्मिक विद्वान् एवं प्रचलित जनश्रुतियों का मत है कि सम्पूर्ण दुनिया का निर्माता ब्रह्मा है और सबसे पहले सृष्टि में मनु का जन्म हुआ. विश्व के सभी लोग मनु की संतान हैं और मनु के नाम से ही 'मानव' शब्द का आविर्भाव हुआ है. यह दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त भारतवर्ष द्वारा प्रतिपादित किया गया. इसके अतिरिक्त अनेक मत प्रचलन में रहे. ओल्ड टेस्टामेंट (Old testament) के अनुसार मानव की उत्पत्ति 'नोआ' से हुई. अरबों वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर भीषण जलप्लावन हुआ, उससे पृथ्वी को नष्ट होने से बचाकर 'नोआ' ने मानव की रचना की, जिससे सृष्टि की संरचना का क्रम विकसित हुआ. उपर्युक्त तथ्य धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं.
धीरे-धीरे वैज्ञानिक विचारधारा प्रबल हुई और पौराणिक काल के उपर्युक्त दैवीय सिद्धान्तों को मात्र कपोल कल्पना माना जाने लगा. 18वीं शताब्दी के पदार्पण होते ही सृष्टि एवं मानव के आविर्भाव के सम्बन्ध में डार्विन के जीव विकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ, जिसके अनुसार जीवों के क्रमिक विकास की प्रक्रिया के द्वारा मानव का जन्म हुआ. इसमें वे निर्धारण करते हैं—मछली कसरीसृपमानव अर्थात् जैविक उत्पत्ति में पहले जलचर, उभयचर, रेप्टाइल्स एवं अन्त में स्थलचर, स्तनधारी जन्तुओं एवं मानव का जन्म हुआ. मानव उत्पत्ति के इस सिद्धान्त के बाद भू-वैज्ञानिकों ने इस दिशा में अपने तर्क प्रस्तुत किए. उनके अनुसार इस पृथ्वी का उद्भव काल 48 अरब वर्ष पूर्व का है. मानव की उत्पत्ति लगभग 35 अरब वर्ष पूर्व हुई. मानव एवं पृथ्वी के उद्भव काल को निश्चित करने के लिए इन्होंने भू-वैज्ञानिक समय-सारणी का निर्माण किया. इस समय सारणी को महाकल्पों में विभाजित किया गया है. प्रत्येक महाकल्प (Eras) को कल्प में और कल्प को युग में विभाजित किया गया है. भू-वैज्ञानिकों ने महाकल्पों को पाँच भागों में वर्गीकृत किया है - (i) प्राचीन महाकल्प, (ii) प्रारम्भिक महाकल्प, (iii) पुरातन जीव महाकल्प, (iv) मध्य महाकल्प, (v) नूतन जीव महाकल्प. इनमें से नूतन जीव महाकल्प को तृतीय एवं चतुर्थ कल्पों में विभक्त किया है. तृतीय कल्प को भू-वैज्ञानिकों के अनुसार चार भागों में विभाजित किया है- पुरानूतन युग, आदिनूतन युग, अल्प नूतन युग और मध्यनूतन युग. नूतन जीव महाकल्प के द्वितीय वर्गीकरण के चतुर्थ को भू-वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित तीन युगों में वर्गीकृत किया है- न्यूननूतन युग, अत्यन्त नूतन युग एवं अति नूतन युग.
भू-वैज्ञानिकों के अनुसार मानव जीवन का उद्भव एवं विकास क्रमशः इन्हीं महाकल्पों, कल्पों और युगों में हुआ है. ये क्रमिक विकास की परिकल्पना को डार्विन के जैव विकासक्रम के अनुरूप मानते हैं. उनके अनुसार सरीसृपों के बाद स्तनपायी प्राणियों का आविर्भाव हुआ और इन स्तनपायी सेनोजोइक प्राणियों में 'नर-वानर' या 'प्राइमेट' भी एक था. ( नवजीवनयुग) मानव विकास का सबसे महत्वपूर्ण काल रहा है. इस काल में मानव सम प्राणी (Homo-Sapiens) का जन्म हुआ. धीरे-धीरे प्रगति हुई और ज्ञानी मानव आज के मानव के पूर्वज के रूप में पैदा हुआ. इस प्रकार मानव सम प्राणी का उद्भव काल 1 करोड़ 20 लाख से 90 लाख वर्ष पुराना है.
स्तरक्रम विज्ञान पद्धति के आधार पर आधुनिक काल में प्राप्त अवशेष जिसमें - बागोर (भीलवाड़ा, राजस्थान), सराय नाहरराय (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश), बागाइखोर, लेखानियाँ (मिर्जापुर ) - मानव सम प्राणी या होमोलिड के कालक्रम के उपर्युक्त निर्धारण की पुष्टि करते हैं. मानव के विकास-क्रम में आदिमानव से आधुनिक मानव तक बनने में मानव की निम्न प्रजातियों का जन्म हुआ- प्राइमेट, रामापिथेकस, आस्ट्रेलोपिथेकस, अफ्रीकेनस, होमोइरेक्टस, निग्रण्डरथल एवं होमोसेपियन्स इन प्रजातियों के सबसे अन्त में पैदा होने वाली मानव प्रजाति ज्ञानी मानव या होमोसेपियन्स थी, जो पृथ्वी पर लगभग आज से पचास हजार वर्ष पूर्व पैदा हुई. ज्ञानी मानव या होमोसेपियन्स प्रजाति आधुनिक मानव की प्रजाति का ही स्वरूप था.
> मानव सभ्यता के विकास के चरण
आदि मानव का विकास आधुनिक मानव के रूप में हुआ. इसमें कई महाकल्प लग गये. प्रागैतिहासिक मानव पशु से मिलता-जुलता, पूर्णतया प्रकृति पर आश्रित था. शारीरिक संरचना में न्यूनतम अन्तर था. उस मानव के पूँछ भी विद्यमान थी. धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ और उसमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. मानव ने पशुवत् आचरण समाप्त किए. प्रकृति पर आश्रित न होकर स्वयं के परिश्रम के बल पर हथियारों एवं उपकरणों का निर्माण किया. इसके बाद भी निरन्तर मानव सभ्यता प्रखरता से परिवर्तित होती रही और शनैः-शनैः उपकरण और हथियार बदलते गये.
उपकरण–प्रारूप के आधार पर प्रागैतिहासकारों ने मानव सभ्यता के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है - (1) पाषाण काल (2) ताम्र काल (3) कांस्य काल (4) लौह काल. मानव सभ्यता के विकास का यह विभाजन हथियारों के निर्माण के लिए प्रयुक्त होने वाली धातु पर आधारित था, अतः इस विभाजन को समुचित नहीं माना गया. इसके बाद प्रागैतिहास अध्ययन की दूसरी पद्धति स्तरक्रम विज्ञान के आधार पर मानव के क्रमिक विकास को आधार बनाकर मानव सभ्यता को दो भागों में वर्गीकृत किया गया–(1) पाषाण काल एवं (2) धातु काल. मानव सभ्यता का प्रारम्भ पाषाण काल से हुआ. पाषाण काल एवं धातु काल के लम्बे को अध्ययन की दृष्टि से सुगम बनाने के लिए इन्हें क्रमशः तीन-तीन भागों में वर्गीकृत किया गया- (1) पुरा पाषाण काल, (2) मध्य पाषाणकाल और (3) नव पाषाण काल तथा (1) ताम्र युग, (2) कांस्य युग (3) लौह युग. इन्हीं कालों में मानव सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों का आविर्भाव हुआ और वानर की किस्म का पशुवत् आचरण करने वाला मानव पूरी तरह विकसित एवं आधुनिक सभ्य मानव बन गया. मानव सभ्यता के विकास के इन विभिन्न कालों का वर्णन इस प्रकार है
> पाषाण काल
पुरा पाषाण काल—मानव सभ्यता का प्रारम्भिक काल पुरा पाषाण काल है. मानव ने अपना सर्वाधिक लम्बा जीवन इसी काल में व्यतीत किया. विभिन्न प्रकार के उपकरणों, हथियारों को आविष्कृत कर जटिल जीवन पद्धति को आसान बनाया उपकरण–प्रारूप के सिद्धान्त पर पुरा पाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया - (i) पूर्व पुरा पाषाण काल (ii) मध्य पुरा पाषाण काल और (iii) उत्तर पाषाण काल पुरा पाषाण काल के इन तीन चरणों में मानव की कई प्रजातियाँ पैदा हुईं. सभ्यता में परिवर्तन आया और मानव उपकरण - हथियारों का प्रयोग करने लगा.
(i) पूर्व पुरा पाषाण काल यह मानव सभ्यता का सर्वाधिक प्रारम्भिक काल था, जिसमें मानव को अपने होने का भी अहसास नहीं था. इस काल में मानव के रहने की भी कोई जगह निश्चित नहीं थी. वह वर्षा, धूप, सर्दी से बचने के लिए सघन वृक्षों का सहारा लेता था अथवा अपना सारा समय अनिश्चित भ्रमण में व्यतीत करता था. इस काल का मानव पूरी तरह पशुओं से मेल खाता था. वह भोजन का उत्पादन नहीं, अपितु संग्रह करता था. लकड़ी के टुकड़े और पत्थरों से हथियार बनाने की प्रवृत्ति उसमें आ गई थी. इस काल में वस्त्र की कल्पना नहीं थी. इस काल का मानव आगे चलकर अपने गुप्तांगों को छाल-पत्तियों से ढकने लगा था, की रक्षा करना था. शिकार करने की परम्परा इसी काल के इसका कारण लज्जा भाव नहीं, अपितु अपने नाजुक अंगों मानव द्वारा प्रारम्भ की गई, फलस्वरूप उपकरण व हथियारों का आविष्कार हुआ. इस काल के हथियारों में कोर, फलक, खण्डक, हाथ की कुल्हाड़ी आदि प्रमुख थे. ये हथियार पूरी तरह बेडौल, भद्दे एवं पाषाण खण्ड होते थे. पूर्व पुरा पाषाण नदी, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, काल के हथियार भारत में महाराष्ट्र की प्रबरा नदी, नर्मदा उड़ीसा, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि की नदी-घाटियों पर पाए गए हैं. इस काल के अन्त में मानव गुफाओं में रहने लगा था. उत्तर प्रदेश के बेलन घाटी एवं मध्य प्रदेश के भीम बेटका की गुफाओं से प्राप्त तत्कालीन उपकरणों के आधार नदी-घाटियों में विकसित हुई. तत्कालीन संस्कृति के प्रमुख पर इसकी पुष्टि की जाती है. पूर्व पाषाण काल की संस्कृति केन्द्र दक्षिण भारत की मद्रासियन संस्कृति एवं उत्तर-पश्चिम की सोन संस्कृति (पाकिस्तान में) भी नदी-घाटियों में ही विकसित हुई थी. इससे पुष्टि होती है कि पूर्व पुरा पाषाण कालीन मानव नदी घाटियों पर स्थायी या अस्थायी रूप से जीवन निर्वाह करता था.
(ii) मध्य पुरा पाषाण काल - इस काल के मानव ने अग्नि को खोज निकाला था. पत्थरों के घर्षण से उत्पन्न होने वाली आग से वह शिकार को पकाकर खाता था. कुछ दिनों का मुख्य भोजन संग्रह कर उसे काम में लेना उसकी प्रवृत्ति बन चुकी थी. वह गुफा-कंदराओं में निवास करने लगा था. सभ्यता एवं संस्कृति के विकसित होने के साथ ही इस काल के मानव में मृतक संस्कार करने की प्रवृत्ति पैदा हो चुकी थी. उसका हथियार एवं उपकरण चिकने, सुडौल, सुन्दर, छोटे, पैने और भोजन शिकार होता था. इस काल के मानव ने अपने अधिक कारगर बना लिए थे. इस काल में फलक हथियार बनाये गये. इसलिए मध्य पुरा पाषाण काल को फलक संस्कृति भी कहा जाता है. मध्य पुरा पाषाण काल की संस्कृति के प्रमुख स्थल- कृष्णा घाटी (कर्नाटक), धसान तथा बेतवा घाटी (मध्य प्रदेश), बेलन घाटी (उत्तर प्रदेश), आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, नेवासा घाटी (महाराष्ट्र) हैं, जो अधिकांशतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र हैं, साकार करने लगा था. इस काल में विशिष्ट उपकरणों, जैसे–हल, बैल, जुए, नाव, इत्यादि का आविर्भाव हो गया था. इस काल में मकान बनाने की परम्परा सुदृढ़ हो चुकी थी. मिट्टी और पत्थर के साथ ईंट (पकी हुई) का प्रयोग किया जाने लगा था. मकान, वृत्ताकार, आयताकार एवं बड़े बनाए जाते थे तथा घेराबन्दी करने की प्रथा भी प्रचलित थी. मकानों के अन्दर ही चूल्हा एवं तन्दूर की व्यवस्था भी विद्यमान थी. इससे सम्बन्धित साक्ष्य राजस्थान की बनास घाटी के दो स्थल - आहड़ और गिलुंद में प्राप्त हुए हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं. मिट्टी के बर्तन लाल एवं काले रंग के बनाये जाते थे, जिन्हें सफेद रंग से सजाया जाता था. चाक निर्मित मृद्भाण्ड प्रमुख था. नेवासा से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर बेर, मटर, पटसन, चावल, गेहूँ, जौ, मसूर की खेती होने के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं. बाजरा-मक्का की खेती भी होने लगी थी. पशुपालन इस काल के मानव का प्रमुख एवं आवश्यक अंग हो गया था. घोड़ा, भैंस, बैल, गाय, सुअर, कुत्ता, बकरी, भेड़ विशेष रूप से पाले जाने लगे थे. इस काल में ताँबा खानों से लाया जाता था, जिसे गरम कर गलाने के बाद आभूषण बनाये जाते थे, जिनमें चूड़ियाँ, अँगूठी, गले का हार प्रमुख थे. मानव स्वनिर्मित वस्त्रों का उपयोग करने लगा था. धार्मिक आस्थाएँ एवं पुनर्जन्म में विश्वास की धारणा अत्यन्त प्रबल हो चुकी थी. मातृदेवी के पूजा इस काल में भी की जाती थी. मृतकों का शवाधान फर्श के नीचे रखकर उसके साथ मृतक की इच्छित वस्तुओं को रखने की प्रथा विद्यमान थी. नेवासा - चंदोली में इसी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रमाण मिले हैं. अन्य स्थलों में प्रमुख हैं-पूर्वी भारत, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान राजस्थान की बनास घाटी में आहड़ और गिलुंद नामक स्थानों पर पकाई गई ईंटों एवं भव्य भवनों, कबीलों की परम्परा के साक्ष्य मिले हैं. मध्य प्रदेश के नवदाटोली, कायथ और एरन नामक स्थानों पर मनके, मुहरें, मृण्मूर्तियाँ, कृषि एवं पशुपालन के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं. इन्हीं स्थानों पर रंगबिरंगे मृद्भाण्ड, बस्तियाँ, चूड़ियाँ, ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, मनके एवं मटर, खैसारी उत्खनन से प्राप्त हुए हैं जो मध्य पुरापाषाण काल की प्रायद्वीपीय संस्कृति को उद्घाटित करते हैं.
(iii) उत्तर पाषाण काल - इस काल में पारिवारिक परम्परा का जन्म हुआ. लोग सामुदायिक रूप से कुल या अनेक व्यक्तियों के साथ रहते थे. मानव गुफाओं के अलावा झोंपड़ियों में रहने लगा था. पुरुष एवं महिलाओं का श्रम विभाजन हो चुका था. पुरुष शिकार करता था, भोजन का संग्रह करता था और महिलाएँ अपने घर की देखभाल करती थीं. वस्त्र का आविष्कार हो चुका था. मानव जानवरों के चमड़े को हड्डी द्वारा निर्मित सुई से सींकर अधोवस्त्र का निर्माण करता था. सम्भवतः इस काल की संस्कृति का उदय हिमयुग के अन्तिम चरण में हुआ था. आधुनिक मानव से मिलती-जुलती प्रजाति ज्ञानी मानव या होमोसेपियन्स का आविर्भाव इसी काल में हुआ. इस काल के हथियार एवं उपकरण तीक्ष्ण एवं संरचना की दृष्टि से सुन्दर होते थे. इनमें चाकू, ब्यूरिन, छिद्रक, शर, सुई, स्क्रेपर, हड्डी की छड़ एवं भाला प्रमुखतः ब्लेडों द्वारा निर्मित हथियार थे. इस काल से -विसादी (गुजरात), सम्बन्धित प्रमुख सांस्कृतिक स्थलमुच्छलता, सिंहभूम (झारखण्ड) पटने, इनाम गाँव (महाराष्ट्र), चिन्तामनु, गावी, रेनीगुंटा (आन्ध्र प्रदेश), सोनघाटी (मध्यप्रदेश), बीजापुर (कर्नाटक) शोरीपुर, दोआब (उत्तर प्रदेश) आदि में पाए गए हैं. इन तथ्यों से सिद्ध हुआ है कि इस काल में चित्रकारी और नक्काशी प्रचलित हो चुकी थी, जिन्हें भीमबेटका की गुफाओं में देखा जा सकता है. धार्मिक आस्थाएँ प्रकट होने लगी थीं. मूर्तिपूजा, मन्दिर एवं पुरोहित अस्तित्व में आ गए थे. उत्तर प्रदेश के बेलन घाटी में प्राप्त मातृदेवी की मूर्ति तत्कालीन सभ्यता में धार्मिक प्रभाव एवं कला के समन्वित स्वरूप को प्रदर्शित करती है. सभ्यता के विकास-क्रम की तीव्रगति के कारण ही इन्हें होमोसेपियन्स या ज्ञानी मानव कहा जाता है. इस काल में एक विशिष्ट वर्ग अपने अंधविश्वास एवं जादूगरी के प्रभाव से अपनी आजीविका चलाता था, इनका आधार धार्मिक होने के कारण कालान्तर में इन्हें ही 'पुरोहित' कहा गया है. इस काल की अवधि भू-वैज्ञानिक 4 लाख वर्ष पूर्व से 10,000 वर्ष तक मानते हैं.
मध्य पाषाण काल - मध्य पाषाण काल के मानव में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से परिवर्तन हो चुका था. इस काल का मानव स्थायी निवास बनाकर छोटी-छोटी टोलियों में रहने लगा था. पशुपालन एवं कृषि कार्य होने लगा था. इस काल का मानव अपने निजी स्वार्थों की तरफ केन्द्रित हो गया था, जिसके प्रमाण 'सराय नाहरराय' में युद्ध सम्बन्धी अवशेषों से मिलते हैं. व्यक्तिगत सम्पत्ति या भोजन, शिकार के किन्हीं कारणों को लेकर इस तरह के छोटे-छोटे युद्ध या आक्रमण होते होंगे. मानव ने इस काल में मिट्टी के बर्तन बनाना प्रारम्भ कर दिया था, जिसके लिए चक्र (चाक) का निर्माण इसी काल की देन है. बर्तन बनाने की इस कला का प्रसार सम्पूर्ण विश्व में मध्य पाषाण काल से ही हुआ था. भोजन बनाने के लिए चूल्हे भी इस काल में बनाये जाने लगे थे 'संघनाज' नामक स्थान पर प्राप्त मिट्टी के बर्तनों एवं उपकरणों के आधार पर इस बात की पुष्टि होती है. इस काल में सामाजिक जीवन एवं ग्राम सभ्यता का प्रारम्भ हो चुका था. इस काल में मानव समतल क्षेत्र में पत्थरों एवं मिट्टी के ढेलों से दीवार बनाकर, पेड़ों की शाखाओं, जानवरों की हड्डियों एवं घास-फूस से छत का निर्माण कर मकान बनाते थे. इस काल के हथियार पूर्वकालीन हथियारों की अपेक्षा छोटे, सुन्दर एवं प्रयोग में श्रेष्ठतम होते थे. इन हथियारों के पीछे लकड़ी के हत्थे लगाये जाते थे. तीर-बाण का आविष्कार इसी काल में हुआ था. इस काल के हथियारों को संरचना के आधार पर दो भागों - (i) अज्यामितिक लघु हथियार एवं (ii) ज्यामितिक लघु हथियार में विभाजित किया गया है.
मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के साक्ष्य उपकरण प्रारूप जिन स्थानों पर मिले हैं, वे हैं- बागोर ( राजस्थान), आजमगढ़ (मध्य प्रदेश), संघनाज (गुजरात), बीर भानपुर ( पश्चिमी बंगाल), टेरी समूह (तमिलनाडु), सराय नाहर राय, महाराहा, मोरहना पहाड़ (उत्तर प्रदेश). इसी काल में जलवायु पूरी तरह परिवर्तित हो चुकी थी. ठण्ड एवं बर्फ से आक्रान्त लोगों को इस काल में राहत मिली थी. घास, वन, लताओं एवं अन्य वनस्पतियों का आविर्भाव हुआ था. कभी ठण्डी प्रकृति में पैदा होने वाले विशाल जानवरों - रेनडियर, मैमथ के स्थान पर हिरण, बकरी, भेड़, खरगोश पैदा हो चुके थे. चित्रकारी, नक्काशी एवं नृत्य, गायन का प्रचलन प्रारम्भ हो चुका था. इस तरह के साक्ष्य विन्ध्याचल की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं. मध्यकालीन मानव की आस्था धर्म के प्रति प्रबल थी. इस काल का मानव प्रस्तरखण्डों एवं लिंग की पूजा करता था. इस काल में भक्ति भावना से अविभूत होकर लोग माँस, दूध, अन्नादि अर्पित करता था. मध्य पाषाण काल में प्रचलित उपकरण एवं हथियारों में- बेधनी, समलम्ब, इकधार फलक एवं अर्द्धचन्द्राकार प्रमुख थे. विभिन्न तथ्यों के आधार पर इस काल का अस्तित्व आधुनिक काल से 8000 वर्ष पूर्व तक था. यह लगभग 4000 वर्ष तक अस्तित्व में रहा. इस काल का मानव जाति एवं वर्गों में विभाजित हो गया था. उनके रीति-रिवाज, रहन-सहन भी भिन्न थे. इनमें आपस में वर्जनाएं भी होती थीं. इन्हीं आधारों पर आगे चलकर वर्ण - व्यवस्था एवं जाति -प्रथा का स्वरूप प्रस्फुटित हुआ पारिवारिक सम्बन्ध इसी काल में दृढ़ हुए थे. कृषि कार्य एवं पशुपालन के कारण मानव झुण्ड के रूप में रहने लगा, जिससे संयुक्त परिवार का रूप विकसित हुआ एवं माता पिता, भाई-बंहिन, पिता-पुत्र के रिश्ते बनने लगे एवं ममत्व के भावों का आविर्भाव हुआ.
नवपाषाण काल - मध्य पाषाण काल के अन्त होते ही नवपाषाण काल की सभ्यता एवं संस्कृति का प्रारम्भ हुआ, जिसकी प्रागैतिहासिक काल में स्थिति विश्वभर में 7000 वर्ष पूर्व की मानी जाती है. कालक्रम की दृष्टि से यह सबसे छोटा काल था. इस काल का उद्भव भारत में नहीं माना जाता प्रसिद्ध भू-वैज्ञानी गॉर्डन चाइल्ड (Gorden Child) इस संस्कृति का उद्भव क्षेत्र पश्चिमी एशिया के 'धन्वाकर' क्षेत्र में मानते हैं और इसका प्रसार वहीं से सम्पूर्ण विश्व में हुआ है. स्तरक्रम पद्धति के आधार पर 7000 ई. पू. के कृषि उत्पादन के प्रमाण स्पष्ट रूप से मेहरगढ़ (पाकिस्तान) में मिलते हैं. अन्य खोजों के बाद लगभग 5000 ई. पू. यहाँ पर जौ एवं गेहूँ की खेती होने के प्रमाण मिलते हैं. इन साक्ष्यों के आधार पर नवपाषाण काल की संस्कृति को 7000 ई. पू. मानना तर्कसंगत है. नवपाषाण काल का मानव अब पूरी तरह सभ्य मानव बन चुका था. वह भोजन का संग्रह करने की अपेक्षा भोजन उत्पादन करने लगा था. इस काल के हथियार पैने, छोटे, सुडौल एवं पॉलिश द्वारा चमकदार होते थे. इस काल का प्रमुख उपकरण कुल्हाड़ी था, जिसे कृषिकार्य के प्रयोग में लिया जाता था. इस काल के प्रमुख उपकरणों में हँसिया, ओखली, मूसल, सींग एवं हड्डी निर्मित बरमा, सुई, छैनी, छुरी रुखानी, काँटेदार बर्धी, कंघे, सुआ इत्यादि थे. हथियारों के अवशेष सरायखोला (रावलपिण्डीपाकिस्तान), राना घुण्डई ( बलूचिस्तान - पाकिस्तान), किली गुल मोहम्मद ( क्वेटा घाटी- पाकिस्तान ), बुर्जहोम (कश्मीर), आसाम, मेघालय, कोलड़ीहवा ( उत्तर प्रदेश), पैयामपल्ली (तमिलनाडु), मास्की, संगनकल्लू, ब्रह्मगिरि (कर्नाटक), चिरांद (बिहार), पिकलीहल, उटनूर (आन्ध्र प्रदेश) में प्राप्त हुए हैं.
नवपाषाण काल में मिट्टी के बर्तनों को कलात्मक ढंग से बनाया जाने लगा था. बर्तनों को पकाने, रंगने एवं चित्रों द्वारा सज्जित किया जाने लगा था. मूर्तियाँ, खिलौने एवं आभूषण इस काल में ही बनाये जाने लगे थे.
नवपाषाण काल प्रागैतिहास में एकमात्र ऐसा काल था, जिसमें श्रम विभाजन एवं व्यावसायियों का वर्गीकरण हुआ. इन्हें कुम्हार, बढ़ई, कृषक आदि कहा जाता था. इस काल में एक संगठित वर्ग तैयार हो गया था, जो पूर्णतः कबीलापरम्परा का द्योतक था. नवपाषाण काल की धार्मिक आस्था एवं भावना प्रबल थी. इस काल में प्राकृतिक शक्तियों को पूजा जाता था. विभिन्न प्राप्त अवशेषों के आधार पर इस काल में मातृदेवी की पूजा की जाती थी, जिसे प्रसन्न करने के लिए वे नानाविधि से पूंजा अर्चना करते थे. कर्म और पुनर्जन्म पर विश्वास था. अपने कबीले या परिवार के सदस्य को मरने के बाद दफनाने की प्रथा प्रचलित हो गई थी तथा उसकी रुचि की सभी चीजें रख दी जाती थीं. इसके पीछे उनकी अवधारणा थी कि मृतक पुनर्जीवित होकर दूसरे शरीर में जन्म लेगा. अतः उसको इनकी आवश्यकता हो सकती है. मृतक की मृत्यु के कई दिनों बाद तक उसको पितर मानकर पूजा जाता था. यहाँ तक पाया गया है कि मृतक व्यक्ति के परिवार के लोग उसकी हड्डियाँ इकट्ठी कर, उसे संरक्षित करते थे. कई स्थानों पर कब्र के पास बड़े-बड़े पत्थर गाड़ने का प्रावधान था, जिसे वे सम्मान एवं आत्मा की शान्ति का प्रतीक मानते थे. इन पत्थरों को 'महापाषाण' (Megaliths) कहते थे. ‘महापाषाण’ (Megaliths) लगाने की प्रथा के अवशेष दक्षिण भारत एवं यूरोप में प्राप्त हुए हैं. इस काल के मानव का परिवेश पूर्णतः सभ्य एवं उत्कृष्ट बन चुका था. रीति-रिवाज, मर्यादा, स्नेहिल सम्पर्क शासन प्रणाली, व्यवसाय, धार्मिक आस्था, आध्यात्मिक विचार, परिवार, कबीले आदि इस काल के मानव के जीवन में पूरी तरह समाहित हो चुके थे.
भारत में नवपाषाणकालीन संस्कृति के अनेक साक्ष्य कश्मीर, सिन्ध, बलूचिस्तान, उड़ीसा, बिहार, असम, मेघालय, पिकलीहल, संगनकल्लू, दंब सादात, अमरी, कोटदीजी इत्यादि से प्राप्त हुए हैं. कश्मीर के बुर्जहोम नामक स्थान पर तत्कालीन संस्कृति के सर्वाधिक अवशेष यथा हड्डी के उपकरण जिसमें बर्फी, आरी, काँटा एवं मिट्टी के अलंकृत बर्तन प्राप्त हुए हैं. बुर्जहोम में गर्तगृहों में रहने के साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं, जिसके अनुसार गर्तगृहों में बड़े-बड़े पत्थरों से सीढ़ी बनाकर नीचे उतरा जाता था एवं वहीं अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता था. प्रवेश द्वार के पास चूल्हे एवं आलों के निर्माण के प्रारूप भी यहाँ प्राप्त हुए हैं, जो इस विकसित काल में अर्द्धविकसित स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं. नवपाषाणकालीन संस्कृति को यदि विकास की पराकाष्ठा कहा जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
धातुकाल
पाषाण काल के अन्तिम समय में तत्कालीन मानव को धातुओं के बारे में जानकारी हो गई थी. धातुओं की खोज किस तरह हुई या मानव इसको कैसे समझ पाया. इसके लिए तत्कालीन भू-वैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों का मत है कि पाषाण काल में ही अपने भोजन की व्यवस्था के लिए मानव चूल्हे एवं भट्टियों का प्रयोग करता था, जिनका निर्माण मिट्टी पत्थरों से होता था, लेकिन इसके बाद इनका निर्माण धातु मिश्रित पत्थरों से होने लगा था. तीव्र ऊष्मा के कारण से धातुएँ पिघलकर बहती होंगी, जिससे उन्हें इसके अस्तित्व का पता चला और कूट-पीटकर इनका मनोवांछित उपकरण के निर्माण में प्रयोग करने लगा. इनके उपयोग से धातुकाल के मानव की शक्ति बढ़ गई और अनेक उपकरण एवं हथियारों का आविष्कार हुआ. धातु काल के उपकरणों में मुठिये बनाए जाते थे, जिस पर क्रॉस एवं स्वास्तिक का चिह्न बना होता था. धातुकाल में सर्वप्रथम मानव को सोने की जानकारी हुई. यह न्यूनतम मात्रा में कठिन परिश्रम एवं भ्रमण के बाद प्राप्त होता था. इसलिए सोने का प्रयोग सीमित दायरे में आभूषणों के लिए होने लगा. लगातार परिश्रम के बाद दूसरी धातुओं की खोज सफल हुई और उत्तर भारत में ताँबे एवं दक्षिण भारत में लोहा पाया गया. काँस्य की खोज अपूर्व थी. इस तरह नानव के धातुओं से परिचित हो जाने के कारण नवपाषाण काल के अन्त में आने वाले काल को धातु युग या धातु काल कहा गया, जिसे तीन भागों में विभाजित किया गया-(अ) ताम्र युग (ब) काँस्य युग (स) लौह युग.
धातु युग का प्रारम्भिक काल
ताम्र पाषाण काल-ताम्र युग में सभी सभ्यताएँ नवपाषाणकालीन थीं. इस काल का मानव पूर्ववत् व्यवहार करता था. एकमात्र ताँबे की पहचान नयी खोज थी. उपकरण एवं हथियारों में कुछ नये ताँबे के हथियारों को छोड़कर शेष पत्थर के ही प्रयोग में लाये जाते थे. अतः यह काल ताम्र पाषाण काल कहा जाता है. इस काल की सभ्यता का प्रारम्भ 5000 से 4000 ई. पू. तक हुआ. इस काल की संस्कृति एवं सभ्यता पूर्णरूप से विकसित थी. इस काल का मानव समाज एवं राज्य की कल्पनाएँ चावल, मसूर, गेहूँ, चना इत्यादि की फसलें पैदा होने के प्रमाण मिले हैं. इसी तरह के अवशेष महाराष्ट्र के नासिक, दयमाबाद, इनामगाँव, सोनेगाँव, नेवासा, जोर्वे तथा दक्षिण भारत में ब्रह्मगिरि, मास्की, उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद ; पश्चिमी बंगाल में पांडुराजार ढिढबी में भी मिले. हैं. बिहार में चिराँद नामक स्थान पर ताम्रपाषाणकालीन सभ्यता एवं संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं. इस काल के मानव में व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना विकसित हो चुकी थी, जिससे यदा-कदा कबीले में वैचारिक मतभेद से युद्ध पनपने लगे थे.
ताम्र युग
धातु युग का सबसे न्यूनावधि वाला काल ताम्र युग रहा. ताम्र पाषाण काल में पत्थर और ताँबे दोनों का प्रचलन था, लेकिन इस काल में यह सिर्फ ताँबे तक ही सिमट कर रह गया था. इसका कालक्रम 2000-1800 ई. पू. के मध्य मान लेना तर्कसंगत होगा, क्योंकि इस काल की संस्कृति सिन्धु सभ्यता की समाप्ति के बाद अस्तित्व में आई तथा इसका क्षेत्र भी बहुत कम था. ताम्र युग की सभ्यता के अवशेष मात्र गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्रों में मिलते हैं. इस काल का मानव पूर्णतः सभ्य, कृषक, शिल्पी एवं व्यवसायी बन चुका था. शिकार, खेती एवं अन्य उद्योगों को संचालित करने के लिए ताँबे के उपकरण - हथियार प्रचलित थे. इस काल के उपकरण प्रमुख रूप से गंगा-यमुना का दोआब, राजस्थान एवं बिहार से प्राप्त होते हैं. प्राप्त उपकरणों में शृंगिकायुक्त तलवार, भाले, हाथ की कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य-भाले एवं सभ्यता के अन्य साक्ष्यों के रूप में मातृदेवी की मूर्तियाँ, मिट्टी के आवास, गेरुवर्णी मृद्भाण्ड एवं शिल्प व्यवसाय के प्रमाण दृष्टिगत होते हैं, जो तत्कालीन सभ्यता के स्वरूप को प्रकट करती हैं. विद्वान् इस संस्कृति का सम्बन्ध हड़प्पा संस्कृति से मानते हैं. ऐसा माना जाता है कि सिन्धु सभ्यतां की समाप्ति के बाद यहाँ के निवासी गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में बस गये.
कांस्य युग
ताम्र काल के बाद काँस्य युग की सभ्यता एवं संस्कृति का सूत्रपात हुआ. सम्पूर्ण विश्व में इसके आविर्भाव का काल विद्वान् 3000 ई. पू. के आसपास मानते हैं. इस काल में ताँबे के स्थान पर काँस्य काम में लिया जाने लगा था. कांसा ताँबे की अपेक्षा टिकाऊ एवं कठोर था; अतः उपकरण एवं हथियारों से लेकर बर्तनों में इसका उपयोग होने लगा था. कांसे के अधिकतम प्रयोग होने के कारण इस काल को काँस्य युग कहा गया. इसी युग में भारत में हड़प्पा या सिन्धु घाटी सभ्यता का प्रारम्भ हुआ. काँस्य युग में गाँवों के स्थान पर शहरी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हो चुका था. काँस्य युग में मानव की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो चुकी थी एवं वह एक सफल व्यवसायी बन गया था. चित्रकारी-शिल्पकारी का विकास हो चुका था. काँस्य युग में राज्य एवं नगरों की स्थापना से मानव जीवन पूर्णतः व्यवस्थित हो चुका था. मेसोपोटामिया, मिस्र, यूनान एवं सिन्धु घाटी में पूरी तरह काँसा ही प्रयुक्त होता था. खुदाई के बाद प्राप्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि लगभग 2000-1700 ई. पू. के बीच के काल में सिन्धु घाटी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा में काँस्ययुगीन सभ्यता का आविर्भाव हुआ. लोथल, कालीबंगा, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, बनवाली काँस्ययुगीन संस्कृति के निर्मित शहर थे. काँस्य युग में मानव को लेखन-कला का ज्ञान हो चुका था. इस काल के दौरान पश्चिमी और मध्य एशिया में भारत के व्यापारिक सम्बन्ध थे. धार्मिक स्तर भी अत्यन्त उच्चस्तरीय था. पीपल, मातृदेवी एवं पशुदेव की पूजा होने लगी थी. चाक से बर्तन की प्रथा अब भी प्रचलित थी. मानव काँस्य के अलावा सोना, चाँदी, टिन की धातुओं से परिचित हो चुका था. इस काल में मृतक - संस्कार अत्यन्त रोचक था. विधि-विधान के साथ गाड़ना, दाह संस्कार करना एवं आभूषण का प्रयोग करते थे. दर्पण का प्रयोग होने लगा था. आभूषणों में अँगूठी, कुण्डल, बाजूबंद, हार, कड़े का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे एवं कान की बालियाँ, पायल, कड़े, करधनी स्त्रियाँ पहनती थीं. स्त्रियाँ केशों का प्रसाधन करती थीं एवं पुरुष मूँछ एवं दाढ़ी रखते थे. सोने, चाँदी, गोमेद, स्फटिक एवं हाथीदाँत के आभूषणों का प्रयोग मात्र धनी लोगों तक सीमित था, जबकि निर्धन एवं सामान्य लोग ताँबे, सामान्य पत्थर, हड्डी एवं पकी मिट्टी के आभूषण पहनते थे. संगीत और नृत्य कला का भी इस युग में बोलबाला था.
लौह युग
काँस्ययुगीन सभ्यता के अन्त होते ही लौह युग प्रारम्भ हो गया. भू-वैज्ञानिकों ने लगभग 1400 ई. पू. के काल को लौह युग माना है. लौह युग स्थायी रूप से अस्तित्व में रहा और इसने क्रान्तिकारी परिवर्तनों को जन्म दिया. अब तक की सभ्यता नदियों-घाटियों में ही सीमित थी, लेकिन लौह युग के आगमन के साथ ही मैदानों में भी शहरीकरण हुआ. लोहा अपेक्षाकृत सस्ता, सुलभ, टिकाऊ एवं अन्य धातुओं से अधिक मजबूत था. इसीलिए लोहे के व्यापक प्रयोग से कृषि एवं व्यवसाय में प्रगति हुई. फलस्वरूप लौहयुगीन सभ्यता कभी भी समाप्त नहीं हो सकी. भारत में मगध जैसे साम्राज्य का उद्भव इसी सभ्यता के दौरान हुआ. लौह युग का प्रारम्भ उत्तर वैदिक काल से माना जाता है, जिसके साक्ष्य पुरातात्विक एवं साहित्यिक सामग्रियाँ हैं. गांधार, पूर्वी पंजाब, ब्लूचिस्तान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान में लगभग 1000 ई. पू. लौहयुगीन सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं. इस दौरान काँटे, भाले, कुदाल, चाकू, दरांती इत्यादि उपकरणों एवं हथियारों के अधिकतम उपयोग होने के साक्ष्य उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं. चाक से निर्मित विभिन्न रंगीन बर्तनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, अतः इस संस्कृति को 'चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति' भी कहा जाता है. इनके अवशेषसोनुपुरा, चिंराँद, मथुरा, हस्तिनापुर, रोपड़, जखेड़ा, नागदा, अंतरजीखेड़ा, आलमगीरपुर, अहिच्छत्र, राजारढिढबी, नोह, एरण, पांडु और महिसदल में मिले हैं. इसी तरह इस काल में स्थायी निवास, कृषि, शिल्प, व्यवसाय, कला, लेखन एवं पारिवारिक सम्बन्धों के स्नेहिल वातावरण के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं.